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पद्य २९-३५ ] संवराधिकार
१०५ 'वास्तवमें वचनके द्वारा कोई भी आत्मा निन्दा या स्तुतिको प्राप्त नहीं होता। मैं निन्दा किया गया हूँ या स्तुति किया गया हूँ यह ( आत्मा ) मोहके योगसे मानता है ।'
व्याख्या-वस्तुतः वचनके द्वारा कोई निन्दित या स्तुत नहीं होता; क्योंकि मूर्तिक बचनका अमूर्तिक आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं बनता। ऐसी स्थितिमें अमुकने मेरी निन्दा की, अमुकने मेरी प्रशंसा की, इस प्रकारकी मान्यता केवल मोहसे सम्बन्ध रखती है-मोही जीव उस निन्दा-स्तुतिका सम्बन्ध यों ही अपने साथ जोड़ लेता है और इस तरह व्यर्थ ही हर्ष-विषादके चक्कर में पड़कर व्याकुल ( परेशान ) होता है।
पर-दोष-गुणोंके कारण हर्ष-विषाद नहीं बनता नानन्दो वा विषादो वा परे संक्रान्त्यभावतः ।
परदोष-गुणैनूनं कदाचिन् न विधीयते ॥३३॥ 'परद्रव्यके दोष तथा गुणोंसे आत्माका कभी आनन्द तथा विषाद नहीं बनता; क्योंकि उन दोष तथा गुणोंका आत्मामें संक्रमणका अभाव है-परके वे दोष या गुण आत्मामें प्रविष्ट नहीं होते।'
व्याख्या--पर द्रव्योंके गुण तथा दोष अपने आत्मामें कभी संक्रमण नहीं करते, इसलिए उनके द्वारा वस्तुतः आत्माके आनन्द तथा विषादकी कोई सृष्टि नहीं बनती। अतः उनसे आत्माके आनन्द तथा विषादकी उत्पत्ति मानना व्यर्थ है और एकमात्र मोहका परिणाम है।
परके विन्तनसे इष्ट-अनिष्ट नहीं होता अयं मेऽनिष्टमिष्टं वा ध्यायतीति वृथा मतिः।
पीड्यते पाल्यते वापि न परः परचिन्तया ॥३४॥ 'यह मेरा अनिष्ट ( अहित ) अथवा इष्ट (हित ) चिन्तन करता है, यह बुद्धि-विचार निरर्थक है; (क्योंकि ) दूसरेकी चिन्तासे दूसरा पीडित या पालित ( रक्षित ) नहीं होता।'
व्याख्या-२२वें पद्यमें यह बतला आये हैं कि किसी भी पर द्रव्यका कोई भी गुण या पर्याय अपनी आत्माके लिए इष्ट या अनिष्ट रूप नहीं होता; ऐसी स्थितिमें जो यह सोचकर दुःखित होता है कि अमुक मेरा अहित चिन्तन कर रहा है और यह सोचकर आनन्दित होता है कि अमुक मेरे हितकी भावना भा रहा है तो ये दोनों ही विचार निरर्थक हैं; क्योंकि कोई भी परकी चिन्ता मात्रसे पीड़ा या रक्षाको प्राप्त नहीं होता।
एक दूसरेके विकल्पसे वृद्धि-हानि माननेपर आपत्ति अन्योऽन्यस्य विकल्पेन वद्धते हाप्यते यदि ।
न सम्पत्तिविपत्तिर्वा तदा कस्यापि हीयते ॥३५॥ 'यदि एक दूसरेके विकल्पसे-चिन्तनसे-वृद्धि या हानिको प्राप्त होता है तो किसीकी भी सम्पत्ति या विपत्ति ( कभी) क्षीण नहीं होती।'
१. मु वर्द्धते ।
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