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________________ १०४ योगसार प्राभृत द्रव्यके गुण- पर्याय संकल्प -बिना इष्टानिष्ट नहीं होते न द्रव्यगुण पर्यायाः संप्राप्ता बुद्धिगोचरम् । इष्टानिष्टाय जायन्ते संकल्पेन विना कृताः || २६ ॥ 'बुद्धिगोचर हुए द्रव्यके गुण-पर्याय बिना संकल्पके किये आत्माके इष्ट या अनिष्ट रूप नहीं होते - संकल्प अथवा भ्रान्त कल्पनाके द्वारा ही उन्हें इष्ट या अनिष्ट बनाया जाता है ।' व्याख्या- किसी भी परद्रव्यका कोई भी गुण या पर्याय अपने आत्माके लिए वस्तुतः इष्ट या अनिष्ट नहीं होता, निःसार कल्पनाके द्वारा उसे इष्ट या अनिष्ट मान लिया जाता है और इसके कारण यह जीव कष्ट उठाता है । अतः पर पदार्थ में इष्टानिष्टकी कल्पना छोड़ने योग्य है । मिन्दा-स्तुति वचनोंसे रोप तोषको प्राप्त होना व्यर्थ न निन्दा-स्तुति वाक्यानि श्रयमाणानि कुर्वते । संबन्धाभावतः किंचिद् रुध्यते तुष्यते वृथा ||३०|| 'सुने गये निन्दा या स्तुतिरूप वाक्य आत्माका कुछ नहीं करते; क्योंकि वाक्योंके मूर्तिक होनेसे अमूर्तिक आत्मा के साथ उनके सम्बन्धका अभाव है । अतः निन्दा-स्तुति वाक्योंको सुनकर वृथा ही रोध-तोष किया जाता है ।' व्याख्या - निन्दा तथा स्तुतिके जो भी वचन सुनाई पड़ते हैं वे सब पौद्गलिक तथा मूर्ति होनेसे अपने आत्माके साथ उनका वस्तुतः सम्बन्ध नहीं हो पाता और इसलिए वे अपने आत्माका उपकार या अपकार नहीं करते तब उन्हें सुनकर रुष्ट होना या सन्तुष्ट होना एक आत्मसाधना करनेवाले योगी के लिए व्यर्थ है । [ अधिकार ५ मोहके दोपरी बाह्यवस्तु सुख-दुःखकी दाता आत्मनः सकलं बाह्य ं शर्माशर्मविधायकम् । क्रियते मोहदोषेणापरथा न कदाचन ||३१|| Jain Education International 'मोहके दोष से सम्पूर्ण बाह्य पदार्थ समूहको आत्माके सुख-दुःखका विधाता किया जाता है, अन्यथा - मोहके अभाव में - कदाचित् भी वैसा नहीं किया जाता ।' व्याख्या - सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों को अपने आत्मा के जो सुख-दुःख-दाता कल्पित किया जाता है वह सब मोहका दोष है--मोह कर्मके उदयवश जो दृष्टि विकारादिक उत्पन्न होता है उसीके कारण ऐसी मिथ्या मान्यता बनती है— मोहके अभाव में ऐसा कभी नहीं होता । बचन द्वारा वस्तुतः कोई निदित या स्तुत नहीं होता नाञ्जसा वचसा कोsपि निन्द्यते स्तूयतेऽपि वा । निन्दितोऽहं स्तुतोऽहं वा मन्यते मोहयोगतः ॥३२॥ १. मुश्रूयमाणनि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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