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________________ पद्य २३-२८] संवराधिकार १०३ कहे गये आत्मा औदयिक भावोंके द्वारा कर्मका कर्ता तथा फलभोक्ता चेतनः कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये ॥२७॥ 'यह चेतन आत्मा औदयिक भावोंके द्वारा-कर्मोके उदयका निमित्त पाकर उत्पन्न होनेवाले परिणामोंके सहयोगसे-कर्म करता है और उसका फल भोगता है । औदयिकभावोंका अभाव होनेपर वह कोई कर्म नहीं करता और न फलको भोगता है। ____ व्याख्या--यह चेतन आत्मा किसके द्वारा अचेतन कर्मोंका कर्ता तथा भोक्ता है। यह एक प्रश्न है, जिसके समाधानार्थ ही इस पद्यका अवतार हआ जान पड़ता है। पद्यमें बतलाया है कि जीव अपने औदायिकभावोंके द्वारा-उनके निमित्तसे ही कोका कर्ता तथा भोक्ता है। औदायिकभावोंका अभाव हो जानेपर यह जीव न कोई कर्म करता है और न किसी कर्मके फलको भोगता है। औदयिकभाव मोक्षशास्त्र आदिमें मलतः २१ हैं। जिनके नाम हैं :-१ नरकगति, २ तिर्यंचगति, ३ मनुष्यगति, ४ देवगति, ५ क्रोधकषाय, ६ मानकपाय, ७ मायाकषाय, ८ लोभकषाय, ९ स्त्रीवेद, १० पुरुषवेद, ११ नपुंसकवेद, १२ मिथ्यादर्शन, १३ अज्ञान, १४ असंयम, १५ असिद्ध, १६ कृष्ण लेश्या, १७ नीललेश्या, १८ कपोत लेश्या, १९ पीतलेश्या, २० पद्मलेश्या, २१ शुक्ललेश्या। नरकगत्यादि रूप गति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न नारकादि चार भाव औदयिक होते है; क्रोधादि जनक कपाय कमकि उदयसे उत्पन्न क्रोधादिरूप चार भाव भी औदयिक होते हैं; स्त्रीलिंगादि कर्मोके उदयसे उत्पन्न स्त्रीवेदादि तीन प्रकारके रागभाव भी औदयिक होते हैं । मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे उत्पन्न अतत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम मिथ्यादर्शन नामका औदायिक भाव है; ज्ञानावरण कर्मके उदयसे उत्पन्न तत्त्वोंके अनवबोधरूप अज्ञान नामका औदयिक भाव है, चारित्र मोहकर्मके सर्वघाति स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न असंयत नामका औदयिक भाव है; कर्मोदय सामान्यकी अपेक्षासे उत्पन्न असिद्ध नामका औदयिक भाव है, कषायोंके उदयसे अनुरंजित जो योग प्रवृत्तिरूप कृष्णादि छह प्रकारकी भाव लेश्यायें हैं वे भी औदयिक हैं। इस प्रकार औदयिकभाव २१ प्रकारके हैं । इन्द्रिय-विषय आत्माका कुछ नहीं करते पञ्चाक्ष विषयाः किंचिन् नास्य कुर्वन्त्यचेतनाः । मन्यते स विकल्पेन सुखदा दुःखदा मम ॥२८॥ 'पाँचों इन्द्रियोंके विपय, जो कि अचेतन हैं, इस आत्माका कुछ भो (उपकार या अपकार) नहीं करते। आत्मा विकल्प बुद्धिसे ( भ्रमवश ) उन्हें अपने सुखदाता तथा दुःखदाता मानता है। व्याख्या-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इनके विषय क्रमशः स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द हैं । ये पाँचों विषय चेतना-रहित जड़ हैं, मृतिक हैं और चेतनामय अमूर्तिक आत्माका कुछ भी उपकार या अपकार नहीं करते हैं, फिर भी यह आत्मा विकल्पसे-भ्रान्त वुद्धिसे-इन्हें अपनेको सुखका दाता तथा दुःखका दाता मानता है। १. गति-कपाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकपड्भेदाः । -त० सूत्र २-६ । २. देखो, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थ मूत्र आदिकी टोकाएँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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