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________________ १०२ योगसार- प्राभृत [ अधिकार ५ स्व-परके भेदको जानकर आत्मतत्त्वमें लीन हुआ योगी सदा स्वद्रव्यको अपना और परद्रव्यको पराया मानता है वह शुभाशुभ कर्मोंके आस्रवको रोकनेवाला संवरका विधाता होता है । द्रव्य पर्यायकी अपेक्षा कर्म फल भोगकी व्यवस्था विदधाति 'परो जीवः किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुङ्क्ते फलं तस्य पुनः परः ||२३|| य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीवः शुभाशुभम् । स एव भजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ||२४|| मनुष्यः कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ||२५| नित्यानित्यात्मके जीवे तत्सर्वमुपपद्यते । न किंचिद् घटते तत्र नित्येऽनित्ये च सर्वथा ॥ २६॥ 'पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे एक जीव कुछ शुभ-अशुभ कर्म करता है और उसका फल दूसरा भोगता है । द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षासे जो जीव कुछ शुभ-अशुभ कर्म करता है वही उसका फल भोगता है । जैसे मनुष्य पुण्य कर्म करता है देव उसका फल भोगता है अथवा आत्मा पुण्यकर्म करता है आत्मा ही उसके फलको भोगता है । जीवको कथंचित् नित्य-अनित्य माननेपर उक्त सब कथन ठीक घटित होता है, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य माननेपर कुछ भी घटित नहीं होता ।' व्याख्या - इन पद्यों में 'द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक न्यकी दृष्टिसे किसी के किये हुए शुभ-अशुभ कर्म फलका भोक्ता कौन ?' इस विषयको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि पर्यायकी अपेक्षासे तो एक जीव कर्म करता है और दूसरा जीव उसके फलको भोगता है, जैसे मनुष्य जीवने संयम-तप आदिके द्वारा पुण्योपार्जन किया और देव जीवने उसके फलको भोगा - पर्याय दृष्टिसे मनुष्य जीव और देव जीव अलग-अलग हैं । परन्तु द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि जो जीवशुभ या अशुभ कर्म करता है वही उसके फलको भोगता है, चाहे किसी भी पर्याय में क्यों न हो, जिस जीवने मनुष्य पर्याय में तप-संयमादिके द्वारा पुण्योपार्जन किया वही मरकर देवगति में गया और वहाँ उसने अपने उस पूर्वकृत पुण्यके फलको भोगा । जीवको द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य माननेपर यह सब कुछ ठीक घटित होता है, परन्तु जीवको सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य माननेपर यह सब कुछ भी घटित नहीं होता; क्योंकि सर्वथा नित्यमें परिणाम, विक्रिया, अवस्थासे अवस्थान्तर कुछ भी नहीं बनता । और सर्वथा अनित्यमें जब जीवका क्षण-भर में मूलतः निरन्वय विनाश हो जाता है तब वह अपने किये कर्मका फल कैसे भोग सकता है ? उसके परलोक गमन तथा अन्य शरीर धारणादि ही नहीं बन सकते। और भी कितने ही दोष इस सर्वथा अनित्य ( क्षणिकान्त ) की मान्यतामें घटित होते हैं, जिनकी जानकारीके लिए स्वामी समन्तभद्रके देवागम और उसकी अष्टशती, अष्टसहस्री आदि टीकाओंको देखना चाहिए । १. आ व्या परं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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