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________________ योगसार-प्राभृत [अधिकार ५ स्रवोंके भीतर डूबा रहता है और इसलिए ग्रन्थकारके शब्दों में उसका उत्तार-उद्धार होनेमें नहीं आता। यहाँ छठे पद्यमें प्रयुक्त धर्म-अधर्म शब्द पुण्य-पापके वाचक हैं और 'लोकाचार' शब्द लौकिकजनोचित ( योगीजनोंके अयोग्य ) प्रवृत्तियोंका द्योतक है । मूर्त-पुद्गलोंमें राग-द्वेष करनेवाले मूढबुद्धि वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-युक्तः शुभाशुभैः। चेतनाचेतनैमू तैरमूर्तः पुद्गलैरयम् ॥८॥ शक्यो नेतुं सुखं दुःखं सम्बन्धाभावतः कथम् । रागद्वेषौ यतस्तत्र क्रियेते मूढमानसैः ।।६।। 'शुभ तथा अशुभ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दसे युक्त, सचेतन या अचेतन मूर्तिक पुद्गलोंके द्वारा यह अमूर्तिक आत्मा कैसे सुख-दुःखको प्राप्त किया जा सकता है ? क्योंकि मूर्तिक-अमूर्तिकमें परस्पर सम्बन्धका अभाव है। अतः वे मूढ़बुद्धि हैं जिनके द्वारा पुद्गलोंमें राग-द्वेष किये जाते हैं।' व्याख्या-यहाँ ९वें पद्यमें जिस सम्बन्धके अभावका उल्लेख है वह तादात्म्य सम्बन्ध है, जिसे एकका दूसरेसे मिलकर तद्रूप हो जाना कहते हैं। अमूर्तिक आत्माके साथ मूर्तिक पुगलोंका यह सम्बन्ध कभी नहीं बनता। ऐसी स्थितिमें जो पुद्गल अच्छे या बुरे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्दको लिये हुए हों, जीवसहित हों या जीवरहित हों वे अमूर्तिक आत्माको सुख या दुःख कैसे पहुँचा सकते हैं ? नहीं पहुँचा सकते। अतः उन पुद्गलोंमें जो राग-द्वेष करते हैं उन्हें बुद्धिमान कैसे कहा जा सकता है ? वे तो दृष्टिविकारके कारण बस्तुतत्त्वको ठीक न समझनेवाले मूढ़बुद्धि है। किसीमें रोप-तोष न करनेकी सहेतुक प्रेरणा निग्रहानुग्रहो कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः । रोष-तोषौ न कुत्रापि कर्तव्याविति तात्त्विकैः ॥१०॥ 'आत्माका निग्रह तथा अनुग्रह करने में कोई भी समर्थ नहीं है अतः तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा कहीं भी किसी भी परपदार्थमें-रोष या तोष नहीं किया जाना चाहिए।' व्याख्या-वास्तव में यदि देखा जाये तो कोई भी पुद्गल अथवा परद्रव्य (सम्वन्धाभावके कारण ) आत्माका उपकार या अपकार करने में समर्थ नहीं है, इसलिए जो तत्त्वज्ञानी हैं वे उपकार या अपकारके होनेपर किसी भी परद्रव्यमें राग-द्वेप नहीं करते अथवा उन्हें नहीं करना चाहिए । राग-द्वेषके न करनेसे उनके आत्मामें कर्मों का आना रुकेगा; संवर बनेगा और इस तरह आत्माकी झुद्धि सधेगी। १. कर्मासव-निमग्नस्य नोत्तारो जायते ततः ॥३-४॥ २. मु रमूर्तः । www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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