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________________ पद्य १-७] संवराधिकार ९७ व्याख्या-यहाँ आत्मामें परा शुद्धिके विधानको व्यवस्था करते हुए उसके विरोधी दो कारणोंको नष्ट करनेकी बात कही गयी है-एक कषाय भावोंकी और दूसरी द्रव्य कर्मोंकी; क्योंकि एकके निमित्तसे दूसरेका उत्पाद होता है । जब दोनों ही नहीं रहेंगे तभी आत्मामें पूर्ण शुद्धि बन सकेगी। कषाय-त्यागकी उपयोगिताका सहेतुक निर्देश कषायाकुलितो जीवः परद्रव्ये प्रवर्तते । परद्रव्यप्रवृत्तस्य स्वात्मबोधः प्रहीयते ॥ ४ ॥ प्रहीण-स्वात्म-बोधस्य मिथ्यात्वं वर्धते यतः । कारणं कर्मबन्धस्य कषायस्त्यज्यते ततः ॥ ५ ॥ 'कषायसे आकुलित हुआ जीव परद्रव्यमें प्रवृत्त होता है, जो पर-द्रव्यमें प्रवृत्त होता है उसका स्वात्मज्ञान क्षीण होता है, जिसका स्वात्मज्ञान क्षीण होता है उसके चूंकि मिथ्यात्व बढ़ जाता है, जो कि कर्मबन्धका कारण है, इसीसे कषायको त्यागा जाता है।' व्याख्या-इन दोनों पद्योंमें कपायोंके त्यागकी उपयोगिताका सहेतुक निर्देश किया हैबतलाया है कि कपायें जीवको आकुलित-बेचैन और परेशान करती हैं, कपायोंसे आकुलित हुआ जीव परद्रव्योंमें प्रवृत्त होता है, जो जीव परद्रव्योंमें विशेषरूपसे रत रहता है उसका आत्मज्ञान क्षीण हो जाता है, और जिसका स्वात्मज्ञान क्षीण हो जाता है उसका मिथ्यात्वरूप दृष्टि-विकार बढ़ जाता है, जो कि कर्मबन्धनका प्रधान कारण है अतः कषाय-भाव अनेक दृष्टियोंसे त्याग किये जानेके योग्य है। कषाय-क्षपणमें समर्थ योगी निष्कषायो निरारम्भः स्वान्य-द्रव्य-विवेचकः । धर्माधर्म-निराकाङ्क्षो लोकाचार-निरुत्सुकः ॥६॥ विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्ज्वलम् । यो ध्यायत्यात्मनात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ ॥७।। 'जो ( योगी) कषायहीन है, आरम्भ रहित है, स्व-परद्रव्यके विवेकको लिये हुए है, पुण्यपापरूप धर्म-अधर्मकी आकांक्षा नहीं रखता, लोकाचारके विषय में निरुत्सुक है और विशुद्ध दर्शनज्ञानचारित्रमय निर्मल आत्माको आत्मा-द्वारा ध्याता है वह कषायको क्षपाता-विनष्ट करता है ।' ___ व्याख्या-कौन योगी कषायका क्षपण करने में समर्थ होता है ? यह एक प्रश्न है जिसके समाधानार्थ ही इन दोनों पद्योंका अवतार हुआ जान पड़ता है। जो कषायके उदय आनेपर कषायरूप परिणत नहीं होता अथवा बहत मन्दकषायी है, सब प्रकारके आरम्भोंसावद्यकर्मोंसे रहित है, स्व-पर-विवेकसे युक्त है, जिसे पुण्य-पाप दोनों में से किसीकी भी इच्छा नहीं, ऐसा योगी जब निर्मल ज्ञान-दर्शनरूप उज्ज्वल आत्माका आत्माके द्वारा ध्यान करता है तो वह कपायको क्षपणा करने अथवा उसे मूलसे विनष्ट करने में समर्थ होता है। फलतः जो योगी इन गुणोंसे रहित है अथवा इस योग्याचारके विपरीत आचरण करता है वह कपायकी क्षपणामें समर्थ नहीं हो सकता और इसलिए उसके संवर नहीं बनता--वह निरन्तर कर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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