SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पद्य ८-१४] संवराधिकार उपकार-अपकार बननेपर किसमें राग-द्वेष किया जाये परस्याचेतनं गात्र दृश्यते न तु चेतनः। उपकारेऽपकारे क्व रज्यते क्व विरज्यते ॥११॥ 'दूसरेका अचेतन शरीर तो दिखाई देता है किन्तु चेतन आत्मा दिखाई नहीं पड़ता (अतः) उपकार-अपकारके होनेपर किसमें राग किया जाता है तथा किसमें द्वेष ?' । व्याख्या-परका चेतन आत्मा जो दिखाई नहीं देता वह तो राग-द्वेषका पात्र नहीं, और जो शरीर दिखाई देता है वह ( तुम्हारे) राग-विरागको कुछ समझता नहीं, अतः उपकार-अपकारके बननेपर किसीमें राग-द्वेष करना व्यर्थ है। शरीरका निग्रहानुग्रह करनेवालोंमें राग-द्वेष कैसा ? शत्रवः पितरौ दाराः स्वजना भ्रातरोऽङ्गजाः। निगृह्णन्त्यनुगृह्णन्ति शरीरं, चेतनं न मे ॥१२॥ मत्तश्च तत्त्वतो भिन्न चेतनात्तदचेतनम् । द्वेषरागौ ततः कर्तुं युक्तौ तेष कथं मम ॥१३॥ 'शत्रु, माता-पिता, स्त्रियाँ, भाई, पुत्र और स्वजन ( ये सब ) मेरे शरीरके प्रति निग्नहअनुग्रह करते हैं, मेरे चेतनात्माके प्रति नहीं। मुझ चेतन आत्मासे यह अचेतन शरीर भिन्न है। अतः उन शत्रुओंर्मे द्वेष और स्वजनादिकमें राग करना मेरा कैसे उचित हो सकता है जो मेरे आत्माका कोई निग्रह तथा अनुग्रह नहीं करते।' ___ व्याख्या-यहाँ सुबुद्ध आत्मा राग-द्वेषकी निवृत्तिके लिए यह भावना करता है कि जितने भी शत्रु, मित्र तथा सगे सम्बन्धी हैं वे सब जो कुछ भी निग्रह-अनुग्रह अथवा उपकार-अपकार करते हैं वे शरीरका करते हैं-मेरे चेतनात्माका नहीं; और शरीर, जो कि अचेतन है वह मुझ चेतनात्मासे वस्तुतः भिन्न है, ऐसी स्थितिमें उन शत्रुओंके प्रति द्वेष और उन मित्रों तथा सगे सम्बन्धियोंके प्रति राग करना मेरा कैसे उचित हो सकता है ? नहीं हो सकता। अदृश्य आत्माओंका निग्रहानुग्रह कैसे ? पश्याम्यचेतनं गात्रं यतो न पुनरात्मनः। निग्रहानुग्रहौ तेषां ततोऽहं विदधे कथम् ॥१४॥ 'चू कि मैं उन शत्रु-पितरादिके अचेतन शरीर-समूहको देखता हूँ उनकी आत्माओंको नहीं देख पाता, इसलिए उनका निग्रह-अनुग्रह मैं कैसे करूं ?-उनके शरीरके निग्रह-अनुग्रहसे तो उनका निग्रह-अनुग्रह नहीं बनता। व्याख्या--यहाँ भी सुबुद्ध आत्माकी राग-द्वेषकी निवृत्तिके लिए वही भावना चालू है। यहाँ वह अपने विषयमें सोचता है कि मैं तो शत्रु-मित्रादिके अचेतन शरीरको ही देख पाता हूँ उनके आत्माका मुझे कभी दर्शन नहीं होता, तब मैं उनका निग्रह-अनुग्रह अथवा उपकारअपकार कैसे कर सकता हूँ ? नहीं कर सकता। अतः उनके निग्रह-अनुग्रहका विचार मेरा कोरा अहंकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy