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________________ ९२ योगसार प्राभृत [ अधिकार ४ पापका 'सुख-दुःख-वितारकम्' विशेषण अपना खास महत्त्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जो सुख-दुःख वितरणका कारण होता है वह सुख-दुःख कार्य के पूर्व क्षण में विद्यमान रहता है, तभी वह उपादान कारणके रूप में कार्यको उत्पन्न करने में समर्थ होता है; अन्यथा प्रशस्त या अप्रशस्त परिणाम तो उत्पन्न होकर नष्ट हो गया, कार्योत्पत्तिके समय वह विद्यमान नहीं है तब उस परिणाम से सुख-दुःख कार्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता । सुख-दुःख के प्रदाता वे पुण्य-पापरूप द्रव्यकर्म होते हैं जो उक्त परिणामोंके निमित्तसे उत्पन्न होकर स्थितिबन्ध के द्वारा फलदानके समय तक जीवके साथ रहते हैं और तभी परिणामों का फल-कार्य सम्पन्न होता है । 'उन दोनों पुण्य-पापरूप परिणामोंके सुख-दुःख फलको भोगता हुआ यह जीव मूर्तिक होता है; क्योंकि मूर्तिक कर्मका फल मूर्तिक होता है और वह अमूर्तिक द्वारा नहीं भोगा जाता ।' पुण्य-पाप फलको भोगते हुए जीवकी स्थिति मूर्ती भवति भुञ्जानः सुख-दुःखफलं तयोः । मूर्तकर्मफलं मूर्त नामूर्तेन हि भुज्यते ||३४|| व्याख्या - पुण्य तथा पाप दोनों द्रव्यकर्म पौद्गलिक - मूर्तिक हैं, उनके दिये हुए सुखदुःख फलको, जो कि मूर्तिकजन्य होनेसे मूर्तिक होता है, अमूर्तिक आत्मा कैसे भोगता है ? यह एक प्रश्न है, जिसका उत्तर इतना ही है कि पुण्य-पाप फलको भोगता हुआ जीव मूर्तिक होता है । कर्म - फलको भोगनेवाले सव जीव संसारी होते हैं और संसारी जीव अनादि कर्मसम्बन्ध के कारण मूर्तिक कहे जाते हैं । पुण्य-पापके वश अमूर्त भी मूर्त हो जाता है। मूर्ती भवत्यमूर्तोऽपि पुण्यपापवशीकृतः । १. व्या मूर्ती । Jain Education International 'पुण्य-पापके वशीभूत हुआ अमूर्तिक जीव भी मूर्तिक हो जाता है । और जब उन पुण्य-पाप दोनोंसे छूट जाता है तब अमूर्तिक रह जाता है ।' व्याख्या - पिछले पच में अमूर्तिक जीवके मूर्तिक होनेकी जो बात कही गयी है उसीको इस पद्य में स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मूर्तिक पुण्य-पापके वश में - बन्धनमें - पड़ा हुआ जीव वस्तुत: अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक होता है और जब उन दोनोंके बन्धन से छूट जाता है तब स्वरूप में स्थित हुआ स्वयं अमूर्तिक हो जाता है। इससे जीवका संसारावस्थारूप जितना भी विभाव परिणमन है वह सब उसे मूर्तिक बनाता है । यदा विमुच्यते ताभ्याममूर्तोऽस्ति तदा पुनः ||३५|| उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण विकारं नीयमानोऽपि कर्मभिः सविकारिभिः । मेवैरिव नभो याति स्वस्वभावं तदत्यये ॥ ३६ ॥ 'विकारी कर्मों के द्वारा विकारको प्राप्त हुआ भी यह जोव उस विकारके नाश होनेपर उसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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