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________________ पद्य २८-३३] बन्धाधिकार व्याख्या-पिछले पद्यमें कर्मफलसे जिस सुगति या दुर्गतिको जानेकी बात कही गयी है उसको प्राप्त होकर यह जीव नियमसे देह धारण करता है चाहे वह देव, मनुष्य तिचादि किसी भी प्रकारको क्यों न हो; देहमें इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है-चाहे एक स्पर्शन इन्द्रिय ही क्यों न हो; इन्द्रियों से उनके विषयों स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शव्दका ग्रहण होता है; विषयोंके ग्रहणसे राग-द्वेषादिक उत्पन्न होते हैं और राग-द्वेषादिकी उत्पत्तिसे पुनः कर्मबन्ध होता है और कमबन्धक फलस्वरूप पुनः गति, सुगति, देह, इन्द्रिय विषयग्रहण, राग-द्वेष और पुनः कर्मबन्धादिके रूपमें संसार-परिभ्रमण होता है और इस संसारपरिभ्रमणसे अनेकानेक प्रकारके दुःखोंको सहन करना पड़ता है, जिन सबका वर्णन करना • अशक्य है । अतः जो दुःखोंसे डरते हैं, उन ज्ञानी-जनोंको कर्मवन्धके कारणीभूत क्रोधादि कषायों तथा हास्यादि नोकपायोंका त्याग करना चाहिए । उनको त्यागनेसे पिछला कर्मबन्धन टूटेगा तथा नये कर्मका वन्धन नहीं होगा। और ऐसा होनेसे मुक्तिका संगम सहज ही प्राप्त होगा, जो स्वात्मोत्थित, स्वाधीन, परनिक्षेप, अतीन्द्रिय, अनन्त, अविनाशी और निर्विकार उस परम सुखका कारण है जिसकी जोड़का कोई भी सुख संसारमें नहीं पाया जाता। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने ऐसे सुखी महात्माको 'अभवदभवसौख्यवान् भवान्' वाक्यके द्वारा 'अभव-सौख्यवान्' बतलाया है। ___ रागादिसे युक्त जीवका परिणाम सन्ति रागादयो यस्य सचित्ताचित्त-वस्तुपु । प्रशस्तो वाप्रशस्तो वा परिणामोऽस्य जायते ॥३२॥ "जिस जीवके चेतन-अचेतन-वस्तुओंमें रागादिक होते हैं उसके प्रशस्त (शुभ ) या अप्रशस्त (अशुभ) परिणाम उत्पन्न होता है।' व्याख्या-जिन राग-द्वेषादिको पहले बन्धका कारण बतला आये हैं, उनसे पुण्य-पापके बन्धकी बातको स्पष्ट करते हुए यहाँ इतना ही बतलाया है कि जिस जीवके भी चेतनअचेतन पदार्थोंमें रागादिक विद्यमान हैं उसका परिणाम प्रशस्त या अप्रशस्त रूप जरूर होता है। कौन परिणाम पुण्य, कौन पाप, दोनोंकी स्थिति प्रशस्तो भण्यते तत्र पुण्यं पापं पुनः परः। द्वयं पौद्गलिक मूर्त सुख-दुःख-वितारकम् ॥३३॥ 'उन दो प्रकारके परिणामोंमें प्रशस्त परिणामको 'पुण्य' और अप्रशस्त परिणामको 'पाप' कहा जाता है, दोनों पुण्य-पापरूप परिणाम पौद्गलिक हैं, मूर्तिक हैं और (क्रमशः) सांसारिक सुख-दुःखके दाता हैं।' व्याख्या-यहाँ प्रशस्त और अप्रशस्त-परिणामोंके अलग-अलग नामोंका उल्लेख हैप्रशस्त परिणामोंको 'पुण्य' और अप्रशस्त परिणाम (भाव ) को 'पाप' बतलाया है; क्योंकि ये दोनों क्रमशः पुण्य-पाप-बन्धके कारण हैं। कारण में यहाँ कार्यका उपचार किया गया है और इससे दोनोंको पौद्गलिक, मूर्तिक तथा यथाक्रम सुख-दुःखके प्रदाता लिखा है । पुण्य १. देखो, स्वयम्भूस्तोत्रका मुनिसुव्रत-स्तोत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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