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________________ ९० योगसार-प्राभृत [ अधिकार ४ कहा? इसका कारण यह है कि ज्ञानी तो जलमें कमलकी तरह अलिप्त रहता है इसीलिए निश्चयसे भोगता हुआ भी अभोक्ता है और अज्ञानी उस भोगमें रागी-द्वेषी अथवा मोही होकर प्रवर्तता है इसलिए वस्तुतः वही भोक्ता है और वही नया कर्म बाँधता है । यही आशय श्री कुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारकी निम्न गाथामें व्यक्त किया है: उदयगदा कम्मसा जिणवरवसहेण नियदसणा भणिया । तेसु हि मुहिदो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुहवादि ॥ कर्म ग्रहणका तथा सुगति-दुर्गति-गमनका हेतु "कर्म गृह्णाति संसारी कषाय- परिणामतः । सुगतिं दुर्गतिं याति जीवः कर्म विपाकतः ||२८|| 'संसारी जीव कषाय-रूप परिणामसे कर्मको ग्रहण करता है- बाँधता है (और) कर्मके फलसे सुगति तथा दुर्गतिको प्राप्त होता है ।' व्याख्या - संसारी जीव कर्मोंसे युक्त होता है, किसी भी कर्मके उदयकाल में अथवा पर-पदार्थोंके संसर्ग में आनेसे जब वह शुभ या अशुभ कषायरूप परिणमन करता है तो शुभ या अशुभ कर्मको ग्रहण करता है - अपने साथ बाँधता है— उस कर्मके बन्धकी स्थिति के अनुसार जब फलकाल आता है तो उससे जीव सुगति या दुर्गतिको जाता है। शुभ कर्मका फल जो सुख भोग है वह प्रायः सुगतिमें और अशुभ कर्मका फल जो दुःख भोग है वह प्रायः दुर्गति प्राप्त होता है । Jain Education International संसार - परिभ्रमणका हेतु और निर्वृतिका उपाय Parfi दुर्गतिं प्राप्तः स्वीकरोति कलेवरम् । तत्रेन्द्रियाणि जायन्ते गृह्णाति विषयांस्ततः ॥२६॥ ततो भवन्ति रागाद्यास्तेभ्यो दुरित-संग्रहः । तस्माद् भ्रमति संसारे ततो दुःखमनेकधा ||३०| दुःखतो बिभ्यता त्याज्याः कषायाः ज्ञान- शालिना । ततो दुरित- विच्छेदस्ततो निर्वृति-सङ्गमः ॥ ३१ ॥ 'सुगति तथा दुर्गतिको प्राप्त हुआ जीव शरीर ग्रहण करता है, उस शरीरमें इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, इन्द्रियद्वारसे विषयोंको ग्रहण करता है, विषयोंके ग्रहणसे रागादिक उत्पन्न होते हैं, ' रागादिकसे शुभाशुभ रूप कर्मोका संचय होता है और उस कर्मसंचयके कारण संसारमें भ्रमण करता है, जिससे अनेक प्रकारका दुःख प्राप्त होता है | अतः दुःखसे भयभीत ज्ञानशाली जीवात्मा द्वारा कषायें त्यागने योग्य हैं, उनके त्यागसे कर्मोका विनाश होता है और कर्मोके विनाशसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है ।' १. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्त्रो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदि-सुगदी ॥ १२८॥ - पञ्चास्ति । २. गदिमधिगदस्त देहो देहादो इंदियाणि जायंते । ते हि दु विसय-ग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। १२९ ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिघणो सगिधणो वा ॥ १३० ॥ - पञ्चास्ति० । ३. आ गृहृति, व्या गृह्णति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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