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पद्य २३-२७]
बन्धाधिकार 'अज्ञानमें ज्ञानको पर्यायें और ज्ञानमें अज्ञानको पर्याय (उसी प्रकार) नहीं होती (जिस प्रकार) लोहेमें स्वर्णकी पर्यायें और स्वर्णमें लोहेको पर्यायें नहीं होती।'
व्याख्या–यहाँ 'अज्ञान' 'शब्दसे जिसका ग्रहण है वह धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँच अचेतनात्मक द्रव्योंका समूह है, इनमें से किसी भी द्रव्यमें ज्ञानकी पर्यायें नहीं होतीं, उसी प्रकार जिस प्रकार लोहेमें सुवर्णकी पर्याय नहीं होतीं। और 'ज्ञान' शब्दसे जिसका ग्रहण है वह है चेतनात्मक 'जीव' द्रव्य, इसमें अजीव द्रव्यों में से किसीकी कोई पर्याय नहीं होती। यह एक तात्त्विक सिद्धान्तका निर्देश है और इस बातको सूचित करता है कि ये सब चेतन-अचेतन द्रव्य चाहे जितने काल तक परस्पर में मिले-जुलें, सम्पर्कसम्बन्ध अथवा बन्धको प्राप्त रहें; परन्तु वस्तुतः कोई भी चेतन द्रव्य कभी अचेतन और अचेतन द्रव्य कभी चेतन नहीं होता। इस सिद्धान्तके विपरीत जो कुछ प्रतिभास होता है वह सब स्फटिकमें रंगके समान संसर्ग-दोषके कारण मिथ्या है।
अथवा अज्ञानसे यहाँ पूर्व पद्यमें प्रयुक्त वह वेदन विवक्षित है जो राग-द्वेषादि विकारोंसे अभिभूत होता है, उसमें शुद्ध ज्ञानकी पर्याय नहीं होती, और ज्ञानसे वह शुद्ध ज्ञान विवक्षित है जिसमें अशुद्ध ज्ञान ( वेदन) की पर्याय नहीं होती।
ज्ञानी कल्मषोंका अबन्धक और अज्ञानी बन्धक होता है ज्ञानीति ज्ञान-पर्यायी कल्मषानामबन्धकः ।
अज्ञश्चाज्ञान-पर्यायी तेषां भवति बन्धकः ॥२६।। 'जो ज्ञानी है वह ज्ञान-पर्यायी है-ज्ञानरूप परिणमनको लिये हुए है-इसलिए कल्मषोंका-कपायादि रूप कर्मोंका-अबन्धक होता है। जो अज्ञानी है वह अज्ञानपर्यायी हैअज्ञानरूप परिणमनको लिये हुए है और इसलिए कषायादि कर्मोका बन्धक होता है।'
व्याख्या-उक्त सिद्धान्तके अनुसार जो जीव शुद्ध ज्ञानी है वह ज्ञान-पर्यायी होनेसे कर्मोंका बन्धक नहीं होता और जो जीव अज्ञानरूप पुद्गल-कर्म के सम्बन्धसे शुद्ध ज्ञानी न रहकर अज्ञानी है वह ज्ञान-पर्यायी न होनेसे कर्मोंका बन्धक होता है ।
कर्मफलको भोगनेवाले ज्ञानी-अज्ञानी में अन्तर दीयमानं सुखं दुःखं कर्मणा पाकमीयुषा ।
ज्ञानी वेत्ति परो भुङ्क्ते बन्धकावन्धको ततः॥२७।। 'पाकको प्राप्त हुए कर्मके द्वारा जो सुख तथा दुःख दिया जाता है उसे ज्ञानी जानता है और अज्ञानो भोगता है। इसीसे अज्ञानी कर्मका बन्धक और ज्ञानी अबन्धक होता है।'
व्याख्या-जो जीव अज्ञानी होकर जिस कर्मको बाँधता है वह कर्म परिपक्व होकर उदय-कालमें सुख या दुःखको देता है-कर्म शुभ है तो सुख फलको और अशुभ है तो दुःख फलको देता है-उस कर्म-प्रदत्त सुख-दुःखको ज्ञानी तो जानता है परन्तु अज्ञानी उसे भोगता है-राग-द्वेपादि-रूप परिणत होता है। इसीसे एक रागादिक-रूप परिणत होनेवाला अज्ञानी नये कर्मोका बन्धक और दूसरा-समता-भाव धारण करनेवाला नानी-नये कर्मोंका बन्ध न करनेवाला होता है । उदयमें आया हुआ कर्म अपना फल देता ही है, उसे ज्ञानी भी भोगता है और अज्ञानी भी, ऐसा-लोक-व्यवहार है; फिर यहाँ अज्ञानीको ही भोक्ता क्यों
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