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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ४ अप्रामुक द्रव्यको भोगता हुआ भी वीतरागी अबन्धक नीरागोऽप्रासुकं द्रव्यं भुञ्जानोऽपि न बध्यते । शङ्खः किं जायते कृष्णः कर्दमादौ चरन्नपि ।।१७।। 'जो वीतराग है वह अप्रासुक द्रव्यको भोगता-सेवन करता हुआ भी बन्धको प्राप्त नहीं होता । ( ठीक है ) कर्दमादिकमें विचरता हुआ भी शंख क्या काला हो जाता है ? - नहीं होता, शुक्ल ही बना रहता है।' व्याख्या-इस अधिकारके प्रारम्भमें ही कषाय तथा राग-द्वेषको बन्धका प्रमुख कारण बतला आये हैं, यहाँ उसी विषयको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो योगी वीतराग है-अनासक्त है-वह अप्रासुक-सचित्त पदार्थका भोजन करते हुए भी कर्म बन्धको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि धवल शंख कर्दमादिकमें विचरता हुआ भी कृष्ण काला नहीं हो जाता। न भोगता हुआ भी सरागी पापबन्धक सरागो बध्यते पापैरभुञ्जानोऽपि निश्चितम् । अभुजाना न किं मत्स्याः श्वभ्रं यान्ति कषायतः ॥१८॥ 'न भोगता हुआ भी सरागी जीव पापोंसे-कोसे-बन्धको प्राप्त होता है यह निश्चित है । ( ठीक है) न भोगनेवाले (तन्दुलादिक) मत्स्य क्या कषाय परिणामसे-भोगनेकी लालसासे नरकको प्राप्त नहीं होते ?-होते ही हैं। व्याख्या-पिछले पद्य में नीरागीको सचित्त भोजन करते हुए भी अबन्ध्य. बतलाया है और इस पद्यमें सरागीके सचित्त भोजन न करते हुए भी सुनिश्चित रूपसे पापोंके बन्धका पात्र ठहराया है, उसी प्रकार जिस प्रकार राघव नामके बहुत बड़े मच्छकी आँखोंपर बैठे हुए छोटे-छोटे तन्दुलमच्छ राघव मच्छके मुँह में साँसके साथ प्रवेश करतो और निःश्वासके साथ बाहर निकलती हुई अनेक छोटी-बड़ी मछलियोंको देखकर यह कपाय-भाव करते हैं कि यह मूर्ख मच्छर अपना मुँह बन्द करके मुखमें प्रविष्ट हुई मछलियोंको चबा क्यों नहीं जाताबाहर क्यों निकलने देता है। इतने कषायभावसे ही, बिना उन मछलियोंका भोजन किये, वे तन्दुलमच्छ नरकमें जाते हैं, ऐसा आगममें उल्लेख है। विषयोंका संग होनेपर भी ज्ञानी उनसे लिप्त नहीं होता ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषय व लिप्यते । कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते ॥१९॥ 'जो ज्ञानी है वह विषयोंका संग होनेपर भी उनसे लिप्त नहीं होता (उसी प्रकार जिस प्रकार कि) मलोंके मध्यमें पड़ा हुआ सुवर्ण (सोना) मलोंसे लिप्त नहीं होता-मलोंको आत्मप्रविष्ट नहीं करता। व्याख्या-यहाँ जिस ज्ञानीका उल्लेख है वह वही है जो नीरागी है । अध्यात्मभाषामें वह ज्ञानी ही नहीं माना जाता जो रागमें आसक्त है। ऐसे ज्ञानी योगीकी विपयोंका संग १. व्या पापैरडंजानोऽपि । २. मु श्वभ्रे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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