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________________ पद्य १३-१६] बन्धाधिकार प्रत्येक जीवका उपकार या अपकार उसके अपने बाँधे शुभ या अशुभ कर्मके उदयाश्रित है; जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षाके 'उवयारं अवयारं कम्मं च सुहासुहं कुणदि' इस वाक्यसे भी जाना जाता है। चारित्रादिकी मलिनताका हेतु मिथ्यात्व चारित्र दर्शनं ज्ञानं मिथ्यात्वेन मलीमसम् । कर्पटें कर्दमेनेव' क्रियते निज-संगतः ॥१५॥ "जिस प्रकार कपड़ा कीचड़के द्वारा अपने संगसे मैला किया जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्वके द्वारा अपने संगसे चारित्र, दर्शन तथा ज्ञान मलिन किया जाता है।' व्याख्या-पिछले पद्योंमें तथा इससे पूर्वके आस्रवााधिकारमें भी बुद्धि आदिके रूपमें जिस ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रको सदोष बतलाया है उसकी सदोषताके कारणको इस पद्यमें स्पष्ट किया गया है और वह है मिथ्यात्वका सम्बन्ध, जिसे यहाँ कर्दम-कीचड़की उपमा दी गयी है। कीचड़के सम्बन्धसे जिस प्रकार वस्त्र मैला हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व कर्मके उदयका निमित्त पाकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदोष हो जाते हैं। मलिन चारित्रादि दोषके ग्राहक हैं चारित्रादि त्रयं दोषं स्वीकरोति मलीमसम् । न पुनर्निर्मलीभूतं सुवर्णमिव तत्त्वतः ॥१६॥ 'वस्तुतः मलिन चारित्र, मलिन दर्शन तथा मलिन ज्ञान दोषको स्वीकार करता है परन्तु जो चारित्र दर्शन तथा ज्ञान निर्मलीभूत हो गया है-पर्णतः निर्मल हो गया है-वह दोषको उसी प्रकार ग्रहण नहीं करता जिस प्रकार कि किट्ट-कालिमासे रहित हुआ सुवर्ण फिरसे उस किट्टकालिमाको ग्रहण नहीं करता।' व्याख्या-पिछले पद्यमें मिथ्यात्वके योगसे ज्ञान-दर्शन-चारित्रका सदोप होना बतलाया है तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है. कि जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र मलका संग त्याग कर पूर्णतः निर्मल हो गया है वह भी क्या पुनः मिथ्यात्वके योगसे मलिन हो जाता है ? इसीके समाधानार्थ इस पद्यका अवतार हुआ जान पड़ता है। इसमें बतलाया है कि जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र मलिन है-कुछ भी मलसे युक्त है अथवा सत्तामें मलको लिये हुए है-वही वस्तुतः दोपको स्वीकार करता है-दूसरे मलको ग्रहण करता अथवा मलरूप परिणत होता है-मलसे ही मलकी परिपाटी चलती है-जो पूर्णतः निर्मल हो गया है वह फिर मिथ्यात्वके संगसेचारों ओर मिथ्यात्वका वातावरण होते हुए भी-मलिन नहीं होता उसी प्रकार जिस प्रकार कि पूर्णतः निर्मल हुआ स्वर्ण दिन-रात कीचड़ में पड़ा रहनेपर भी फिरसे उस किट्ट-कालिमाको ग्रहण नहीं करता। इसीमें मुक्तिका तत्त्व छिपा हुआ है-जिन जीवोंका दर्शन-ज्ञान-चारित्र पूर्णतः निर्मल हो जाता है वे फिरसे भव धारण कर अथवा अवतार लेकर संसार-भ्रमण नहीं करते-सदाके लिए भव-बन्धनोंसे मुक्त हो जाते हैं। १. मु कर्दमेणव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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