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८४ योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ४ निर्मित बतलाया है। अतः मैं दूसरेको जिलाता या मारता हूँ, दूसरा मुझे जिलाता या मारता है, इस प्रकारकी बुद्धिसे जो शुभ या अशुभ कर्म बन्ध होता है उसे मिथ्यात्वजन्य समझना चाहिए। ऐसी बुद्धिवाले जीवको श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें 'सो मूढो अण्णाणी' इस वाक्यके द्वारा मूढ (मिथ्यादृष्टि) और अज्ञानी (अविवेकी) बतलाया है। और उसके परके मारने-जिलाने, दःखी-सखी करने. परके द्वारा मारे जाने-जिलायेजाने दुःखी किये जानेकी बुद्धिको आयुकर्मादिके न देने न हरने आदिके कारण निरर्थक, मिथ्या तथा मूढमति बतलाया है और पुण्य-पापके बन्धकी करनेवाली लिखा है। साथ ही जीवनमरण, सुख-दुःखादिका होना कर्मके उदयवश बतलाया है। इस विषयकी १४ गाथाएँ २४८ से २६१ तक विस्तार रुचिवालोंको समयसारमें देखने योग्य हैं, जिनका सारा विषय संक्षेपतः यहाँ पद्य ९ से १२ तक आ गया है। यह सब कथन निश्चय नयकी दृष्टि से है।' व्यवहार नयकी दृष्टिसे जिलाना, मारना, सुखी, दुःखी करना आदि कहनेमें आता है।
यहाँ तथा अन्यत्र जिसे 'बुद्धि' शब्दसे, १८वं आदि पद्योंमें 'परिणाम' शब्दसे और कहीं 'भाव' तथा 'मति' शब्दोंसे उल्लेखित किया है उसीके लिए समयसारमें अध्यक विज्ञान, व्यवसाय और चिन्ता शब्दोंका भी प्रयोग किया गया है। और सबको एक ही अर्थके वाचक बतलाया है ; जैसा कि उसकी निम्नगाथासे प्रकट है :
बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मई य विण्णाणं । एकट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१॥ कोई किसीके उपकार-अपकारका कर्ता नहीं, कर्तृत्व बुद्धि मिथ्या कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयोः । उपकुर्वेऽपकुर्वेऽहं मिथ्येति क्रियते मतिः ॥१३॥ सहकारितया द्रव्यमन्ये नान्यद् विधीयते
क्रियमाणोऽन्यथा सर्वः संकल्पः कम-बन्धजः॥१४॥ 'कोई भी किसीके उपकार-अपकारका कर्ता नहीं है। मैं दूसरेका उपकार करता हूँ, अपकार करता हूँ, यह जो बुद्धि की जाती है वह मिथ्या है । सहकारिताको दृष्टिसे एक पदार्थ दूसरेके द्वारा अन्य रूपमें किया जाता है। अन्यथा क्रियमाण-करने कराने रूप-जो संकल्प है वह सब कर्मबन्धसे उत्पन्न होता है-कर्म के उदय जन्य है।'
व्याख्या-यहाँ पूर्वोल्लेखित बुद्धियोंसे भिन्न एक-दूसरे प्रकारको बुद्धिका उल्लेख है और वह है दूसरेका उपकार या अपकार करनेकी बुद्धि, इस बुद्धिको भी यहाँ मिथ्या बतलाया है और साथ ही यह निर्देश किया है कि वस्तुतः कोई भी जीव किसीका उपकार या अपकार नहीं करता है । तब यह उपकार-अपकारकी जो मान्यता है वह भी व्यवहारनयके आश्रित है। वास्तव में एक पदार्थ दूसरे पदार्थके निमित्तसे अन्यथा रूप हो जाता है-पर्यायसे पर्यायान्तरको धारण करता है-अन्यथा रूप करने-करानेका जो संकल्प जीवमें उत्पन्न होता है वह सब कर्मबन्धके कारण-तद्रप बँधे हुए कर्मके उदयमें आनेके निमित्तसे-होता है ।
१. ऐसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयण यस्स ॥२६२।।-समयसार । २. ण य कोवि देदि लच्छो ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥३१९ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा। ३. व्या द्रव्यमनेन।
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