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________________ पद्य ७-१२ ] बन्धाधिकार ८३ व्याख्या - आस्रवाधिकार में आस्रव के मिथ्यादर्शनादि चार कारणों का उल्लेख करते हुए यह सूचित किया जा चुका है कि बन्धके भी ये ही चार कारण हैं, इसीसे इस बन्धाधिकारमें बन्धके कारणोंका अलग से कोई नामोल्लेख न करके मिथ्यादर्शनादिजन्य बन्धके कार्योंका सकारण निर्देश किया गया है । यहाँ यह बतलाया गया है कि जीव अमूर्तिक है उसके मरने, जीने, सुख-दुःख भोगने, रक्षित-पीडित किये जाने जैसे कार्योंको कोई भी वस्तुतः कभी करनेमें समर्थ नहीं है, यह एक सिद्धान्तकी बात है । इसके विपरीत जिसका श्रद्धान है वह मिथ्यादृष्टि है, ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव वस्तुतत्त्वको न समझनेपर दूसरे जीवको मारने-जिलाने आदिका जो परिणाम (भाव) करता रहता है उससे वह निरन्तर नाना प्रकार के कर्म-बन्धनोंसे अपनेको बाँधता रहता है। उन बन्धनोंमें शुभ भावोंसे बँधे बन्धन शुभ और अशुभ भावोंसे बँधे बन्धन अशुभ होते हैं । यहाँ मरण, जीवन, दुःख, सौख्य, रक्षा और निपीडन इन छह कार्योंका संक्षेपसे उल्लेख है, इनके साधनों, प्रकारों और इनसे मिलते-जुलते दूसरे कार्योंको भी उपलक्षणसे इनमें शामिल समझना चाहिए । मरणादिक सब कर्म-निर्मित; अन्य कोई करने-हरने में समर्थ नहीं कर्मणा निर्मितं सर्व मरणादिकमात्मनः । कर्मावितरतान्येन कर्तु हर्तुं न शक्यते ॥ ११ ॥ 'आत्माका मरणादिक सब कार्य कर्म-द्वारा निर्मित है, कर्मको न देनेवाले दूसरेके द्वारा उसका करना हरना नहीं बन सकता ।' व्याख्या - पिछले पद्य ९ में जीवके जिन मरणादिक कार्योंका उल्लेख है उन सबको इस पद्य में कर्मनिर्मित बतलाया है; जैसे मरण आयुकर्म के क्षयसे होता है - आयुकर्मके उदयसे जीवन बनता है', साता वेदनीय कर्मका उदय सुखका और असातावेदनीय कर्मका उदय दुःखका कारण होता है । जब एक जीव दूसरे जीवको कर्म नहीं देता और न उसका कर्म लेता है तो फिर वह उस जीवके कर्म-निर्मित कार्यका कर्ता हर्ता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । और इसलिए अपनेको कर्ता-हर्ता मानना मिथ्याबुद्धि है, जो बन्धका कारण है । जिलाने-मारने आदिको सब बुद्धि मोह-कल्पित या 'जीवयामि जीव्येऽहं मार्येऽहं मारयाम्यहम् | " निपीडये निपीड्येऽहं ' सा बुद्धिर्मोहकल्पिता ॥ १२ ॥ 'मैं जिलाता हूँ - जिलाया जाता हूँ, मारता हूँ-मारा जाता हूँ, पीड़ित करता हूँ-पीड़ित किया जाता हूँ, यह बुद्धि है वह मोह-निर्मित है ।' व्याख्या - पिछले पद्य में मिध्यादृष्टिकी जिस बुद्धिका सूचना है, उसीका इस पद्य में स्पष्टीकरण है और उसे 'मोहकल्पिता' - दर्शन मोहनीय ( मिथ्यात्व ) कर्मके उदय-द्वारा Jain Education International १. मुब्या मारणादिकमात्मनः । आ मारणादिगतमात्मनः । २. आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहि पण्णत्तं । २४८-४९ समयसार । ३. आऊदयेण जीवदि जीत्रो एवं भणंति सव्वण्हू । २५१-५२ समयसार । ४. मु निमीड्येऽहं निपीडये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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