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________________ पद्य १७-२२] बन्धाधिकार उपस्थित होनेपर भी उनमें प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार जिस प्रकार कि मलके मध्यमें पड़ा होनेपर भी शुद्ध सुवर्ण मलको ग्रहण नहीं करता। नीरागी योगी पर कृतादि आहारादिसे बन्धको प्राप्त नहीं होता आहारादिभिरन्येन कारितैर्मोदितैः कृतः । तदर्थ बध्यते योगी नीरागो न कदाचन ॥२०॥ 'रागरहित योगी उसके लिए दूसरेके द्वारा किये, कराये तथा अनुमोदित हुए आहारादिकोंसे कदाचित् बन्धको प्राप्त नहीं होता।' व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस विषय-संगका उल्लेख है उसीको यहाँ आहारादिके रूपमें स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो आहार-औषध-वस्तिकादिक किसी योगीके लिए बनाया-बनवाया अथवा अनुमोदना किया गया है उससे वह योगी कभी भी आरम्भा जन्य बन्ध-फलका भागी नहीं होता जो नीरागी है-उस आहारादिक राग-रहित है। और इसलिए जो वैसे कृत-कारित-अनुमोदित-विषयोंमें राग-सहित प्रवर्त्तता है वह अवश्य ही आरम्भादि जन्य पाप फलका भागी होता है-रागके कारण वह भी उस करने-कराने आदिमें शामिल हो जाता है। परद्रव्यगत दोषसे नीरागीके बंधनेपर दोषापत्ति परद्रव्यगतै दोषभरागो यदि बध्यते । तदानीं जायते शुद्धिः कस्य कुत्र कुतः कदा ॥२१॥ 'परद्रव्याश्रित दोषोंके कारण यदि वीतराग भी बन्धको प्राप्त होता है तो फिर किसकी कब कहाँ और कैसे शुद्धि हो सकती है ?-नहीं हो सकती।' । व्याख्या-योगी-मुनिके लिए आहारादि बनाने-बनवाने-अनुमोदना करने में जिस आरम्भादि-जनित दोषकी पिछले पद्य में सूचना है उसे यहाँ पर-द्रव्याश्रित दोप' बतलाया है और साथ ही यह निर्देश किया है कि ऐसे परद्रव्याश्रित दोषोंसे यदि नीरागी योगी भी बन्धको प्राप्त होने लगे तो फिर किसी जीवकी भी किसी कालमें किसी स्थानपर और किसी भी प्रकार शुद्धि नहीं बन सकती। अपने आत्मामें अशुद्धि अपने द्रव्यगत रागादि दोषोंसे होती है-परद्रव्यगत दोषोंसे नहीं। अतः दोष कोई करे और उस दोषसे बन्धको कोई दूसरा ही प्राप्त हो इस भ्रान्त-धारणाको छोड़ देना चाहिए। प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभअशुभ भावोंके अनुसार शुभ-अशुभ बन्धको प्राप्त होता है, यह अटल नियम है। वीतराग योगी विषयको जानता हुआ भी नहीं बँधता नीरागो विषयं योगी बुध्यमानो न बध्यते । परथा बध्यते किं न केवली विश्ववेदकः ॥२२॥ 'जो वीतराग योगी है वह विषयको जानता हुमा कर्मबन्धको प्राप्त नहीं होता। यदि विषयोंको जाननेसे कर्मबन्ध होता है तो विश्वका ज्ञाता केवली बन्धको प्राप्त क्यों नहीं होता?' १. मु परद्रव्यैर्गतै । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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