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________________ १२] [मूलाधारे कायेन्द्रियादीन ज्ञात्वा स्थानादिपु क्रियासु जीवानां हिंसादिविवर्जनहिसा। कायादिस्वरूपेण स्थितानां जीवानां हिंसादिारिहरणहिसेति भावः ॥ द्वितीयस्य व्रतस्य स्वरूपमाह रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणुत्ति । सुत्तत्थाणविकहणे अयधावयणुज्झणं सच्चं ॥६॥ रागादोहि--रागः स्नेहः स आदिर्येषां ते रागादयस्तै रागादिभी रागद्वेषमोहादिभिः पैशून्येादिभिश्च । असच्चं असत्यं मषाभिधानम। चत्ता-त्यक्त्वा परिहत्य। परतावसच परतापसत्यवचनोक्ति परतापसत्यवचनमिति वा । परान् प्राणिनः तपति पीडयति परतापं, परतापं च तत्सत्यवचनं च परतापसत्यवचनम्। येन सत्येनापि वचनेन परेषां परितापादयो भवन्ति तत्सत्यमपि त्यक्त्वा । अयधावयणुज्झणं-न यथा अयथा तच्च तद्ववचनं चायथावचनं अपरमार्थवचनं । द्रव्यक्षेत्रकालभावाद्यनपेक्षं सर्वथास्त्येवेत्येवमादिकं तस्य सर्वस्य उज्झनं परिहरणमयथावचनोज्झनं सदाचाराचार्या क्रियाओं में जीवों की हिंसादि का परिहार करना अहिंसा है। अर्थात् कायादि स्वरूप से रहने वाले जीवों की हिंसादि का परिहार करना अहिंसा है यह अभिप्राय है। विशेषार्थ-जो काय आदि के आश्रित रहने वाले जीवों के भेद प्रभेदों को जानकर पुनः गमन-आगमन भोजन, शरीर का हिलाना-डलाना, संकोचना, हाथ-पैर आदि फैलाना इत्यादि प्रसंगों में जीवों के वध से-उनको पीडा देने या कचल देने इत्यादि से घात करता है वह हिंसा है, उसका त्याग ही अहिंसावत है। अथवा कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं के प्रसंग में सावधानी रखते हुए जीवों के वध का परिहार करना अहिंसावत है। द्वितीय व्रत के स्वरूप को कहते हैं गाथार्थ-रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना और पर को ताप करने वाले सत्य वचनों के भी कथन का त्याग करना तथा सूत्र और अर्थ के कहने में अयथार्थ वचनों का त्याग करना सत्य महाव्रत है ॥६॥ आचारवृत्ति-राग-स्नेह है आदि में जिनके वे रागादि हैं। उन रागादि-राग, द्वेष, मोह आदि के द्वारा और पैशून्य, ईर्ष्या आदि के द्वारा असत्य वचनों का त्याग करना। पर प्राणियों को जो तपाते हैं, पीड़ा देते हैं वे वचन परताप कहलाते हैं। ऐसे सत्य वचन भी अर्थात् जिस सत्य वचन के द्वारा भी परजीवों को परिताप आदि होते हैं उन सत्यवचनों को भी छोड़ देवे । जो जैसे के तैसे नहीं हैं वे अयथा वचन हैं अर्थात् अपरमार्थ वचन हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि की अपेक्षा न करके 'सर्वथा अस्ति एव-सर्वथा ऐसा है ही है' इत्यादि प्रकार के सभी वचनों का परिहार करना अयथा वचन त्याग है । अथवा सदाचारी आचार्य के द्वारा अन्यथा अर्थ कर देने पर भी दोष नहीं है अर्थात् यदि आचार्य सदाचार प्रवृत्तिवाले पापभीरु हैं और कदाचित् अर्थ का वर्णन करते समय कुछ अन्यथा बोल जाते हैं या उनके वचन स्खलित हो जाते हैं तो उसे दोष रूप नहीं समझना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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