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________________ मूलगुणाधिकारः] [११ तत्रैव व्याख्यास्यामः। जीवस्थानानि चैकेन्द्रियवादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त - द्वीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्त - त्रीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्त-चरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्त - पंवेन्द्रियसंजयसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः । कुल--कूलानि जातिभेदाः, वटपलाशशंखशुक्तिमत्कुणपिपीलिकाभ्रमरपतङ्गमत्स्यमनुष्यादयः, सीमन्तकादिनारकभेदाः, भवनादिदेवविशेषाश्च। आऊ-आयुः देहधारण, नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिस्थितिकारणानि । जोणियोनयः जीवोत्पत्तिस्थानानि, सचित्ताचित्तमिश्रशीतोष्णमिश्रसंवृतविवृतमिश्राणि । एतेषां संख्याविशेषमुत्तरत्र व्याख्यास्यामः । कायाश्चेन्द्रियाणि च गुणस्थानानि च मार्गणाश्च कुलानि चायुश्च योनयश्च कायेन्द्रियगुणमार्गणाकूलायूर्योनयस्तासु तान् वा। सव्वजीवाणं--पर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवाः । सर्वशब्दः कात्य॑वचनः, जीवाः द्रव्यप्राणभावप्राणधारणसमर्थाः, तेषां सर्वजीवानाम् । णाऊण-ज्ञात्वा स्वरूपमवबुध्य । ठाणादिसु -स्थानं कायोत्सर्गः स आदिर्येषां ते स्थानादयस्तेषु स्थानादिषु, स्थानासनशयनगमनभोजनोद्वर्तनाकुंचनप्रसारणादिक्रियाविशेषेषु । हिंसा-माण व्यपरोपणं आदिर्येषां ते हिंसादयस्तेषां विवर्जनं हिंसादिविवर्जनं वधपरितापमर्दनादिपरिहरणमहिंसा। एतदहिसाव्रतं कायेन्द्रियगुणमार्गणाकुलायुर्योनिविषयेषु स्थितानां जीवानां कार्योत्सर्गादिषु प्रदेशेषु प्रयत्नवतो हिंसादिवर्जनं यत्तदहिसावतं स्यात् । अथवा भेद हैं—गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक। इनका स्वरूप भी उसी पर्याप्ति अधिकार में कहेंगे । जीवस्थान--जीव समास के भी चौदह भेद हैं जो इस प्रकार हैं-एकेन्द्रिय वादर-सूक्ष्म के पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय सैनी-असैनी के पर्याप्त और अपर्याप्त । जाति के भेद को कुल कहते हैं । बड़-पलाश, शंख-सीप, खटमल-चिवटी, भ्रमर-पतंग, मत्स्य और मनुष्य इत्यादि जातियों के भेद हैं । सीमन्त-पटल आदि की अपेक्षा नारकियों में भेद हैं। भवनवासी आदि से देवों में भेद हैं। ये भेद ही जाति-कुल नाम से यहाँ कहे गये हैं। शरीर के धारण को आयु कहते हैं। यह आयु नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति में स्थिति रहने के लिए कारण है। जीव की उत्पत्ति के स्थान को योनि कहते हैं । इसके सचित्त, अचित्त, मिश्र; शीत, उष्ण, मिश्र; और संवृत, विवृत, मिश्र-ऐसे नव भेद हैं। इन योनियों की विशिष्ट संख्या आगे कहेंगे। इन काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनियों में सभी जीवों को जानकर अथवा इनको और सभी जीवों के स्वरूप को जानकर हिंसा से विरत होता है। जीव के साथ जो सर्व विशेषण है वह सम्पूर्ण को कहने वाला है। जो द्रव्यप्राण और भावप्राण को धारण करने में समर्थ हैं वे जीव कहलाते हैं। स्थान शब्द से यहाँ कायोत्सर्ग अर्थात् खड़े होना, ठहरना यह अर्थ विवक्षित है और आदि शब्द से आसन, शयन, गमन, भोजन, शरीर का उद्वर्तन, संकोचन, प्रसारण आदि क्रियाविशेषों में जीवों के प्राणों का व्यपरोपण—वियोग करना हिंसा आदि है और इस हिंसा आदि का वर्जन करना-वध, परिताप, मर्दन आदि का परिहार करना अहिंसा है। ठहरना आदि क्रियाओं के प्रदेशों में प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले मुनि के हिंसादि का जो त्याग है वह अहिंसाव्रत है। अथवा काय, इन्द्रिय आदि को जान करके ठहरने आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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