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________________ मूलगुणाधिकारः] [१३ न्यथार्थकथने दोषाभावो वा सत्यमिति सम्बन्धः। सुत्तस्थाणविकहणे-सूत्रं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणि, अर्थो जीवादयः पदार्थास्तयोविकथनं प्रतिपादन तस्मिन् सूत्रार्थविकथने, सूत्रस्य अर्थस्य च विकथने अयथावचनस्योत्सर्गोऽन्यथा न प्रतिपादनम् । सदाचारस्याचार्यस्य स्खलने दोषाभावो वा। सच्चं-सत्यमिति। रागादिभिरसत्यमभिधानमभिप्रायं च त्यक्त्वा, परितापकरं सत्यमपि त्यक्त्वा सूत्रार्थान्यथाकथनं च त्यक्त्वा आचार्यादीनां वचनस्खलने दोषं वा त्यक्त्वा यद्वचनं तत्सत्यव्रतमिति । ततीयव्रतस्वरूपनिरूपणायाह गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहुदि परेण संगहिदं । णादाणं परदव्वं प्रदत्तपरिवज्जणं तं तु ॥७॥ गामादिसु-ग्रामो वृत्तिपरिक्षिप्तजननिवास: स आदिर्येषां ते ग्रामादयस्तेषु ग्रामादिषु ग्रामखेटकर्वटमटवनगरोद्यानपथिशैलाटव्यादिषु । पडिदाई-पतितमादिर्येषां तानि पतितादीनि पतितनष्टविस्मृतस्थापितादीनि । अप्पप्पहुदि-अल्पं स्तोकं प्रभृतिरादिर्येषां तान्यल्पप्रभृतीनि स्तोकबहुसूक्ष्मस्थूलादीनि । परेण—अन्येन । संगहिदाइं–संगृहीतानि चात्मवशकृतानि च क्षेत्रवास्तुधनधान्यपुस्तकोपकरणच्छात्रादीनि तेषां सर्वेषां । णादाणं..-नादानं न ग्रहणं आत्मीयकरणविवर्जनम् । परदव्वं ---परद्रव्याणां । अदत्तपरिवज्जणं--अदत्तस्यापरित्यक्तस्यानभ्युपगतस्य च परिवर्जनं परिहरणं अदत्तपरिवर्जन, अदत्तग्रहणेऽभिलाषाभावः । तं तु तदेतत् । परद्रव्याणां ग्रामादिषु पतितादीनामल्पवहादीनां द्वादशांग अंग और चौदह पूर्वसूत्र कहलाते हैं। जीवादि पदार्थ अर्थ शब्द से कहे जाते हैं । इन सूत्र और अर्थ के प्रतिपादन करने में अयथावचन का त्याग करना अर्थात् सूत्र और अर्थ का अन्यथा कथन नहीं करना । अथवा सदाचार प्रवृत्तिवाले आचार्य के वचन स्खलन में दोष का अभाव मानना सत्य है । तात्पर्य यह है कि रागादि के द्वारा असत्य वचन ओर असत्य अभिप्राय को छोड़कर, पर के तापकारी ऐसे सत्यवचनों को भी छोड़ करके तथा सुत्र और अर्थ के अन्यथा कथन रूप वचन को भी छोड करके अथवा आचार्यादि के वचन स्खलन में दोष को छोड़ कर अर्थात् दोष को न ग्रहण करके जो वचन बोलना है वह सत्यव्रत है। तृतीय व्रत का स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं गाथार्थ-ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संगृहीत है ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना सो अदत्त-परित्याग नाम का महाव्रत है ॥७॥ प्राचारवृत्ति-बाड़ से परिवेष्टित जनों के निवास को ग्राम कहते हैं । तथा 'आदि' शब्द से खेट, कर्वट, मटंब, नगर, उद्यान, मार्ग, पर्वत, अटवी आदि में गिरी हुई, खोई हुई, भूली हुई अथवा रखी हुई अल्प या बहुत अथवा सूक्ष्म-स्थूल आदि जो वस्तुएँ हैं; तथा जो अन्य के द्वारा संग्रहीत हैं-अपने बनाये गये हैं ऐसे क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, पुस्तक, उपकरण और छात्र आदि हैं उनको ग्रहण नहीं करना अर्थात् उनको अपने बनाने का त्याग करना और पर के द्रव्यों को विना दिये हुए नहीं लेना, पर से विना पूछे हुए किसी वस्तु के ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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