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________________ परावश्यकाधिकारः] [४७६ ये के वनोपसर्गा देवमनुष्यतिर्यक्कृता अचेतना विद्युदशन्यादयस्तान् सर्वानध्यासे सम्यग्विधानेन सहेऽहं कायोत्सर्ग स्थितः सन, उपसर्गेष्वागतेष कायोत्सर्ग: कर्तव्यः कायोत्सर्गेण वा स्थितस्य यधुपसर्गाः समुपस्थिताः भवन्ति तेऽपि सहनीया इति ॥६५७।। कायोत्सर्गप्रमाणमाह संवच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्त जहण्णय होदि। सेसा काओसग्गा होति अणेगेसु ठाणेसु ॥६५८।। संवत्सरं द्वादशमासमात्र उत्कृष्टं प्रमाणं कायोत्सर्गस्य। जघन्येन प्रमाणं कायोत्सर्गस्यान्तर्महर्तमात्र । संवत्सरान्तर्महतमध्येऽनेकविकल्पा दिवसरात्र्यहोराव्यादिभेदभिन्ना: शेषा: कायोत्सर्गा अनेकेष स्थानेष बहस्थानविशेषेष शक्त्यपेक्षया कार्याः, कालद्रव्यक्षेत्रभावकायोत्सर्गविकल्पा भवन्तीति ॥६५८।। देवमिकादिप्रतिक्रमणे कायोत्सर्गस्य प्रमाणमाह---- अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धपक्खियं च तिण्णिसया। उस्सासा कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण ॥६५६॥ अष्टभिरधिकं शतमष्टोत्तरशतं देवसिके प्रतिक्रमणे दैवसिकप्रतिक्रमणविषये कायोत्सर्गे उच्छवासा प्राचारवृत्ति-देव, मनुष्य या तिर्यंच के द्वारा किए गये, अथवा बिजली, वज्रपात आदि अचेतन कृत हुए जो कोई भी उपसर्ग हैं, कायोत्सर्ग में स्थित हुआ, उन सबको मैं सम्यक् प्रकार से सहन करता हूँ। उपसर्गों के आ जाने पर कायोत्सर्ग करना चाहिए अथवा कायोत्सर्ग से स्थित हुए हैं और यदि उपसर्ग आ जाते हैं तो भी उन्हें सहन करना चाहिए। ऐसा अभिप्राय है। कायोत्सर्ग के प्रमाण को कहते हैं गाथार्थ-एक वर्ष तक कायोत्सर्ग उत्कृष्ट है और अन्तर्मुहूर्त का जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में होते हैं ।।६५८।। प्राचारवत्ति-कायोत्सर्ग का द्वादशमासपर्यंत उत्कृष्ट प्रमाण है, अन्तर्महर्त मात्र जघन्य प्रमाण है। तथा वर्ष के और अन्तर्मुहूर्त के मध्य में दिवस, रात्रि, अहोरात्र आदि भेदरूप अनेकों विकल्प होते हैं । ये सब मध्यमकाल के कहलाते हैं। अपनी शक्ति की अपेक्षा से बहुत से स्थान विशेषों में ये कायोत्सर्ग करना चाहिए। काल, द्रव्य, क्षेत्र और भाव से भी कायोत्सर्ग के भेद हो जाते हैं। दैवसिक आदि प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-अप्रमत्त साधु को वीर भक्ति में देवसिक के एक सौ आठ, रात्रिक के इससे आधे-चौवन और पाक्षिक के तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए ॥६५६। प्राचारवत्ति-देवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना १क अष्टशतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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