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________________ ४७८] [मूलाचारे कायोत्सर्गस्य कारणमाह एगपदमस्सिदस्सवि जो अदिचारोदु रागदोसेहिं । गुत्तीहि' वदिकमो वा चहि कसाएहिं व 'वदेहि ॥६५५॥ छज्जोवणिकाएहिं भयमयठाणेहि बंभधम्मे हिं। काउस्सग्गं ठामिय तं कम्मणिघादणट्टाए ॥६५६॥ एकपदमाश्रितस्यैकपदेन स्थितस्य योऽतीचारो भवति रागद्वेषाभ्यां तथा गुप्तीनां यो व्यतिक्रमः कपायैश्चभिः स्यात व्रतविषये वा यो व्यतिक्रमः स्यात् ॥६५॥ तथा षट्जीवनिकायैः पृथिव्यादिकायविराधनद्वारेण यो व्यतिक्रमस्तथा भयमदस्थानः सप्तभयाष्टमदद्वारेण यो व्यतिक्रमस्तथा ब्रह्मचर्यविषये यो व्यतिक्रमस्तेनाऽऽगतं यत्कमैकपदाद्याश्रितस्य गुप्त्यादिव्यतिक्रमेण च यत्कर्म तस्य कर्मणो निघातनाय कायोत्सर्गमधितिष्ठामि कायोत्सर्गेण तिष्ठामीति सम्बन्धः, अथ वैकपदस्थितस्यापि रागद्वेषाभ्यामतीचारो भवति यतः किं पुनभ्रंमति ततो घातनार्थ कर्मणां तिष्ठामीति ॥६५६।।' पुनरपि कायोत्सर्गकारणमाह जे केई उवसग्गा देवमाणसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे कामोसग्गे ठिदो संतो ॥६५७॥ कायोत्सगे के कारण को कहते हैं गाथार्थ-एक पद का आश्रय लेनेवाले के जो अतीचार हुआ है, राग-द्वेष इन दो से तीन गुप्तियों में अथवा चार कषायों द्वारा वा पाँच व्रतों में जो व्यतिक्रम हुआ है, छह जीव निकायों से, सात भयों से, आठ मद स्थानों से, नव ब्रह्मचर्य गुप्ति में और दशधर्मों में जो व्यतिक्रम हुआ है उनकर्मों का घात करने के लिए मैं कायोत्सर्ग का अनुष्ठान करता हूँ॥६५५-६५६।। प्राचारवृत्ति-एक पद से स्थित हुए-एक पैर से खड़े हुए जीव के-(?)जोअतिचार होता है, राग और द्वेष से जो व्यतिक्रम हुआ है, तीन गुप्तियों का जो व्यतिक्रम हुआ है, चार कषायों से और पांच व्रतों के विषय में जो व्यतिक्रम हुआ है। पृथिवी, जल आदि षट्कायों की विराधना के द्वारा जो व्यतिक्रम हुआ है, तथा सातभय और आठ मद के द्वारा जो व्यतिक्रम हुआ है, ब्रह्मचर्य के विषय में जो व्यतिक्रम अर्थात् अतिचार हुआ है, अर्थात् इनसे जो कर्मों का आना हुआ है उन कर्मों का नाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग को स्वीकार करता हूँ।। अथवा एक पैर से खड़े होने पर भी राग-द्वेष के द्वारा अतीचार होते हैं तो पुनः तुम क्यों भ्रमण करते हो? ऐसा समझकर ही मैं उन राग-द्वेष आदि के द्वारा हुए अतीचारों को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग से स्थित होता हूँ। पुनरपि कायोत्सर्ग के कारणों को कहते हैं गाथार्थ-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत जो कोई भी उपसर्ग हैं, कायोत्सर्ग में स्थित हआ मैं उन सबको सहन करता हैं॥६५७॥ १ क गुत्तीवदिक्कमो। २ क वदएहिं । ३ क भकम्पे । ४ एक्केभावे अणाचारे- एक पद का आश्रय अर्थात एक किसी व्रत में अनाचार हो जाने पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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