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________________ ४८०] [मूलाचारे नामष्टोत्तरशतं कर्तव्यं । कल्लद्धरात्रिकप्रतिक्रमणविषयकायोत्सर्गे चतुःपंचाशदुच्छ्वासा: कर्तव्याः । पाक्षिके च प्रतिक्रमणविषये कायोत्सर्ग त्रीणि शतानि उच्छ्वासानां चिन्तनीयानि स्थातव्यानि विधेयानि । नियमान्ते वीरभक्तिकायोत्सर्गकाले अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन यत्नवता विशेषे सिद्धभक्तिप्रतिक्रमणभक्तिचविशतितीर्थकरभक्तिकरणकायोत्सर्गे सप्तविशतिरुच्छ्वासाः कर्तव्या इति ॥६५६।। चातुर्मासिकसांवत्सरिककायोत्सर्गप्रमाणमाह चादुम्मासे चउरो सदाई संवत्थरे य पंचसदा। काअोसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्वा ॥६६०॥ चातुर्मासिके प्रतिक्रमणे चत्वारि शतान्युच्छ्वासानां चिन्तनीयानि । सांवत्सरिके च प्रतिक्रमणे पंचशतान्युच्छ्वासानां चिन्तनीयानि स्थातव्यानि नियमान्ते कायोत्सर्गप्रमाणमेतच्छेषेषु पूर्ववत् द्रष्टव्यः । एवं चाहिए, अर्थात् छत्तीस बार णमोकार मंत्र का जप करना चाहिए । रात्रिक प्रतिक्रमण विषयक कायोत्सर्ग में चौवन उच्छ्वास अर्थात् अठारह बार णमोकार मन्त्र करना चाहिए। पाक्षिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए। ये उच्छ्वासों का प्रमाण नियमांत -अर्थात् वीर भक्ति के कायोत्सर्ग के समय प्रयत्नशील मुनि को प्रमाद रहित होकर करना चाहिए। तथा विशेष में अर्थात् सिद्ध भवित, प्रतिक्रमण भक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के कायोत्सर्ग में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् नौ बार णमोकार मन्त्र जपना चाहिए। भावार्थ-दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में चार भक्तियाँ की जाती हैं-सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विशति तीर्थकर। इनमें से तीन भक्तियों के कायोत्सर्ग में तो २७-२७ उच्छ्वास करना होते हैं और वीर भक्ति में उपर्युक्त प्रमाण से उच्छ्वास होते हैं। पाक्षिक प्रतिक्रमण में ग्यारह भक्तियाँ होती हैं । यथा सिद्ध,चारित्र, सिद्ध,योगि, आचार्य,प्रतिक्रमण, वीर, चतुर्विशति तीर्थकर, बृहदालोचनाचार्य, मध्यमालोचनाचार्य और क्षुल्लकालोचनाचार्य । इनमें से नव भक्ति में सत्ताईस उच्छ्वास ही होते हैं, तथा वीर भक्ति में तीन सौ उच्छवास होते हैं। एक वार णमोकार मन्त्र के जप में तीन उच्छ्वास होते हैं, यथा-णमो अरहताणं, णमो सिद्धांण, इन दो पदों के उच्चारण में एक उच्छ्वास; णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं इन दो पदों के उच्चारण में एक उच्छ्वास, णमो लोए सब्बसाहूणं इस एक पद के उच्चारण में एक उच्छ्वास ऐसे तीन होते हैं। चातुर्मासिक और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ और सांवत्सारिक में पाँचसौ इस तरह इन पांच स्थानों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वास जानना चाहिए ॥६६०।। प्राचारवृत्ति-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वासों का चितवन करना और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में पाँच सौ उच्छ्वासों का चिन्तवन करना। ये उच्छ्वासों का प्रमाण नियमान्त–वीर भक्ति के कायोत्सर्ग में होता है । शेष भक्तियों में पूर्ववत् सत्ताईस १ क 'विशेषेषु । २ क संवच्छराय। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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