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________________ षडावश्यकाधिकारः] [४५३ नामप्रतिक्रमणं पापहेतु नामातीचारान्निवर्तनं प्रतिक्रमणदंडकगतशब्दोच्चारणं वा, सरागस्थापनाभ्यः परिणामनिवर्तनं स्थापनाप्रतिक्रमणं । सावद्यद्रव्यसेवायाः परिणामस्य निवर्तनं द्रव्यप्रतिक्रमणं। क्षेत्राश्रितातिचारान्निवर्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं, कालमाश्रितातीचारान्निवत्ति: कालप्रतिक्रमणं, रागद्वेषाद्याश्रितातीचारान्निवर्तनं भावप्रतिक्रमणमेष नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितातीचारनिवृत्तिविषयः प्रतिक्रमणे निक्षेपः षड्विधो ज्ञातव्य इति । अथवा नाम प्रतिक्रमणं नाममात्र, प्रतिक्रमणपरिणतस्य प्रतिविबस्थापना स्थापनाप्रतिक्रमणं, प्रतिक्रमणप्राभूतज्ञोप्यनुपयुक्त आगमद्रव्यप्रतिक्रमणं, तच्छरीरादिकं नोआगमद्रव्यप्रतिक्रमणमित्येवमादि पूर्ववद् द्रष्टव्यमिति ॥६१४॥ प्रतिक्रमणभेदं प्रतिपादयन्नाह-- पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खिय चादुम्मासिय संघच्छरमुत्तमट्ठ च ॥६१५॥ प्रतिक्रमणं कृतकारितानुमतातिचारान्निवर्त्तनं, दिवसे भवं दैवसिक दिवसमध्ये नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितातीचारस्य कृतकारितानुमतस्य मनोवचनकायः शोधनं, तथा रात्री भवं रात्रिक रात्रि प्राचारवृत्ति—पाप हेतुक नामों से हुए अतिचारों से दूर होना या प्रतिक्रमण के दण्डकरूप शब्दों का उच्चारण करना नाम प्रतिक्रमण है। सराग स्थापना से अर्थात् सराग मूर्तियों से या अन्य आकारों से परिणाम का हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है। सावद्य-पाप कारक द्रव्यों के सेवन से परिणाम को निवृत्त करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र के आश्रित हए अतिचारों से दूर होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है। काल के आश्रय से हुए अतिचारों से दूर होना काल प्रतिक्रमण है। इस तरह प्रतिक्रमण में छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए। अथवा नाममात्र को नाम प्रतिक्रमण कहते हैं । प्रतिक्रमण में परिणत हुए के प्रतिबिम्ब की स्थापना करना स्थापना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण शास्त्र का जानने वाला तो है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है तो वह आगम द्रव्य प्रतिक्रमण है, उसके शरीर आदि नो-आगमद्रव्य प्रतिक्रमण हैं । इत्यादि रूप से अन्य और भेद पूर्ववत् समझने चाहिए। प्रतिक्रमण के भेदों को कहते हैं गाथार्थ-प्रतिक्रमण देवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ इन सात भेद रूप जानना चाहिए ॥६१५॥ ___ आचारवृत्ति-कृत, कारित और अनुमोदन से हुए अतीचार को दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके सात भेद हैं । उन्हें ही क्रम से दिखाते हैं देवसिक-दिवस में हुए दोषों का प्रतिक्रमण देवसिक है । दिवस के मध्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से कृत, कारित और अनुमोदना रूप जो अतिचार हए हैं उनका मनवचनकाय से शोधन करना दैवसिक प्रतिक्रमण है। रात्रिक-रात्रि सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण रात्रिक है अर्थात् रात्रि विषयक १क 'तु अतीचारनाम्नो निव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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