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________________ astarकाधिकारः ] [४२६ पुण्यकर्म तीर्थकरत्वादि येन तच्चितिकर्म पुण्यसंचयकारणं । पूज्यं तेऽर्च्यन्तेऽर्हदादयो येन तत्पूजाकर्म बहुवचनोच्चारणस्रक्चंदनादिकं । विनीयते निराक्रियन्ते संक्रमणोदयोदीरणादिभावेन प्राप्यते येन कर्माणि तद्विनयकर्म शुश्रूषणं तत्क्रिया कर्म कर्तव्यं केन कस्य कर्तव्यं कथमिव केन विधानेन कर्त्तव्यं कस्मिन्नवस्थाविशेषे कर्त्तव्यं कतिवारान् ।। ५७८।। तथा- कदि श्रोणदं कदि सिरं कदिए आवत्तगेहि परिसुद्ध । कदिदोसविप्पक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं ॥५७६ ॥ कदि ओणदं - कियन्त्यवनतानि । कति कर मुकुलांकितेन शिरसा भूमिस्पर्शनानि कर्त्तव्यानि । कदि सिरं - कियन्ति शिरांसि कतिवारान् शिरसि करकुड्मलं कर्त्तव्यं । कदि आवत्तगेहं परिसुद्धं - कियद्भिरावर्त्तकैः परिशुद्ध कतिवारान्मनोवचनकाया आवर्त्तनीयाः । कदि दोसविप्यमुक्कं - कति दोषैविप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति ।। ५७६ ।। का उपाय कृतिकर्म है । चितिकर्म - जिस अक्षर समूह से या परिणाम से अथवा क्रिया से तीर्थंकरत्व आदि पुण्य कर्म का चयन होता है - सम्यक् प्रकार से अपने साथ एकीभाव होता है या संचय होता है, वह पुण्य संचय का कारणभूत चितिकर्म कहलाता है । पूजाकर्म - जिन अक्षर आदिकों के द्वारा अरिहंत देव आदि पूजे जाते हैं - अर्चे जाते हैं ऐसा बहुवचन से उच्चारण कर उनको जो पुष्पमाला, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं वह पूजाकर्म कहलाता है । विनयकर्म - जिसके द्वारा कर्मों का निराकरण किया जाता है अर्थात् कर्म संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भाव से प्राप्त करा दिये जाते हैं वह विनय है जोकि शुश्रूषा रूप है । वह ५न्दनाक्रिया नामक आवश्यककर्म किसे करना चाहिए ? किसकी करना चाहिए ? किस विधान से करना चाहिए ? किस अवस्थाविशेष में करना चाहिए ? और कितनी बार करना चाहिए ? इस आवश्यक के विषय में ऐसी प्रश्नमाला होती है । उसी प्रकार से और भी प्रश्न होते हैं गाथार्थ - कितनी अवनति, कितनी शिरोनति, कितने आवर्तों से परिशुद्ध, कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ॥ ५७६॥ आचारवृत्ति - हाथों को मुकुलित जोड़कर, मस्तक से लगाकर शिर से भूमि स्पर्श करके जो नमस्कार होता है उसे अवनति या प्रणाम कहते हैं । वह अवनति कितने बार करना चाहिए ? मुकुलित- जुड़े हुए हाथ पर मस्तक रखकर नमस्कार करना शिरोनति है सो कितनी होनी चाहिए ? मनवचनकाय का आवर्तन करना या अंजुलि, जुड़े हाथों को घुमाना सो आवर्त है - यह कितनी बार करना चाहिए ? एवं कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म होना चाहिए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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