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________________ ४३०] [मूलाचारे इति प्रश्नमालाया कृतायां तावत्कृति' कर्मविनयकर्मणोरेकार्थ इति कृत्वा विनयकर्मणः सप्रयोजनां निरुक्तिमाह जह्मा विणेदि* कम्मं श्रट्ठविहं चाउरगमोक्खो य । तह्मा वदति विदुसो विणप्रोत्ति विलोणसंसारा ॥ ५८० ॥ यस्माद्विनयति विनाशयति कर्माष्टविधं चातुरंगात्संसारान्मोक्षश्च यस्माद्विनयात्तस्माद्विद्वांसो विलीनसंसारा विनय इति वदंति ॥१८०॥ यस्माच्च पुव्वं चैव य विणो परुविदो जिणवरेहिं सव्र्व्वाहि । सव्वासु कम्मभूमिसु णिच्चं सो मोक्खमग्गमि ।। ५८१ ॥ यतश्च पूर्वस्मिन्नेव काले विनयः प्ररूपितो जिनवरैः सर्वैः सर्वासु कर्मभूमिषु सप्तत्यधिकक्षेत्रेषु नित्यं सर्वकालं मोक्षमार्गे मोक्षमार्गहेतोस्तस्मान्नार्वाक्कालिको रथ्यापुरुषप्रणीतो वा शंकाऽत्र न कर्त्तव्या निश्चयेनात्र प्रवर्तितव्यमिति ।।५८१|| कति प्रकारोsसो विनय इत्याशंकायामाह - गावित्तिविण अत्थणिमित्ते य कामतंते य । भयविणओ य चउत्थो पंचमप्रो मोक्खविणओ य ।। ५८२ ।। इस प्रकार से प्रश्नमाला के करने पर पहले कृतिकर्म और विनयकर्म का एक ही अर्थ है इसलिए विनयकर्म की प्रयोजन सहित निरुक्ति को कहते हैं गाथार्थ - जिससे आठ प्रकार का कर्म नष्ट हो जाता है और चतुरंग संसार से मोक्ष हो जाता है इस कारण से संसार से रहित विद्वान् उसे 'विनय' कहते हैं ॥ ५८० ॥ आचारवृत्ति -- जिस विनय से कर्मों का नाश होता है और चतुर्गति रूप संसार से मुक्ति मिलती है इससे संसार का विलय करनेवाले विद्वान् उसे 'विनय' यह सार्थक नाम देते हैं । क्योंकि - Jain Education International गाथार्थ - पूर्व में सभी जिनवरों ने सभी कर्मभूमियों में मोक्षमार्ग के कथन में नित्य ही उस विनय का प्ररूपण किया है । ५८१ ॥ आचारवृत्ति - क्योंकि पूर्वकाल में भी सभी जिनवरों ने एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में हमेशा ही मोक्ष मार्ग के हेतु में विनय का प्ररूपण किया है, इसलिए यह विनय आजकल के लोगों द्वारा कथित है या रथ्यापुरुष - पागलपुरुष - यत्र तत्र फिरनेवाले पुरुष 'के द्वारा कथित है, ऐसा नहीं कह सकते । अतः इसमें शंका नहीं करनी चाहिए प्रत्युत इस विनय कर्म में निश्चय से प्रवृत्ति करनी चाहिए । अर्थात् यह विनयकर्म सर्वज्ञदेव द्वारा कथित है । कितने प्रकार का यह विनय है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंगाथार्थ - लोकानुवृत्ति विनय, अर्थनिमित्त विनय, कामतन्त्रविनय, चौथा भयविनय और पाँचवाँ मोक्षविनय है ॥ ५८२ | १ क कर्मणः विनयकर्मणो । २ क विणेयदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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