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________________ estareerधिकारः ] चतुर्विंशतिस्तव विधानमाह - चरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो । अन्वाखित्तो वृत्त कुणदि य चउवीसत्थयं भिक्खू ।। ५७५ ॥ चतुरंगुलान्तरपादः स्थितांगः परित्यक्तशरीरावयवचालनश्चकारादेतल्लब्धं प्रतिलिख्य शरीरभूमिचित्तादिकं प्रशोध्य प्रांजलिः सपिंड: कृतांजलिपुटेन प्रशस्तः सौम्यभावोऽव्याक्षिप्तः सर्वव्यापाररहितः करोति चतुर्विंशतिस्तवं भिक्षुः संयतश्चतुरंगुलमंतरं ययोः पादयोस्तो चतुरंगुलान्तरो तो पादो यस्य स चतुरंगुलान्तरपादः स्थितं निश्चलमंगं यस्य सः स्थितांगः शोभनकायिकवाचिकमानसिकक्रिय इत्यर्थः ॥ ५७५ ॥ चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्तिमुपसंहर्तुं वंदनानिर्युक्ति च प्रतिपादयितुं प्राह चवीस णिज्जत्ती एसा कहिया मए समासेण । वंदणणिज्जत्ती पुण एत्तो उड्ढं पवक्खामि ॥ ५७६ ।। चतुर्विंशतिनिर्युक्तिरेषा कथिता मया समासेन वंदनानिर्युक्ति पुनरित ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति ॥ ५७६॥ तथैतां नामादिनिक्षेपैः प्रतिपादयन्नाह - वणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो खलु वंदणगेणिक्खेवो छव्विहो भणिदो ||५७७।। [ ४२७ अब चतुर्विंशतिस्तव के विधान को कहते हैं गाथार्थ - चार अंगुल अन्तराल से पाद को करके, प्रतिलेखन करके, अंजलि को प्रशस्त जोड़कर, एकाग्रमना हुआ भिक्षु चौबीस तीर्थंकर का स्तोत्र करता है ॥ ५७५॥ Jain Education International आचारवृत्ति - पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर स्थिर अंग कर जो खड़े हुए हैं अर्थात् शरीर के अवयवों के हलन चलन से रहित स्थिर हैं; चकार से ऐसा समझना कि जिन्होंने अपने शरीर और भूमि का पिच्छिका से प्रतिलेखन करके एवं चित्त आदि का शोधन करके अपने हाथों की अंजुलि जोड़ रखी है, जो प्रशस्त-सौम्यभावी हैं, व्याकुलता रहित अर्थात् सर्वव्यापार रहित हैं ऐसे संयत मुनि चतुर्विंशतिस्तव को करते हैं । अर्थात् पैरों में चार अंगुल के अंतराल को रखकर निश्चल अंग करके खड़े होकर, मुनि शोभनरूप कायिक, वाचिक और मानसिकक्रिया वाले होते हुए स्तव नामक आवश्यक को करते हैं । चतुर्विंशतिस्तव नियुक्ति का उपसंहार करने के लिए और वन्दना नियुक्ति का प्रतिपादन करने के लिए अगली गाथा कहते हैं --- गाथार्थ -- मैंने संक्षेप से यह चतुर्विंशतिनियुक्ति कही है, पुनः इसके बाद वन्दना निर्युवित को कहूंगा ||५७६॥ आचारवृत्ति - गाथा सरल है । वन्दना को नामादि निक्षेपों के द्वारा प्रतिपादित करते हैं गाथार्थ - - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, निश्चय से वन्दना का यह छह प्रकार का निक्षेप कहा गया है ।। ५७७ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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