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________________ ४२६] [मूलाचारे निदानमिति ॥५७१।। अन्यच्च; अरहतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिए। धम्महि य जो राओ सुदे य जो बारसविह्मि ॥५७२॥ आयरियेसु य राम्रो समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्ढे । एसो पसत्थराओ हवदि सरागेसु सव्वेसु ॥५७३॥ व्यपगतरागेष्वष्टादशदोषरहितेषु अर्हत्सु यः रागः या भक्तिस्तथा धर्मे यो रागस्तथा श्रुते द्वादशविधे यः रागः ॥५७२।। तथा आचार्येषु रागः श्रमणेषु बहुश्रुतेषु च यो रागश्चरित्राढ्येषु च रागः स एष राग प्रशस्तः शोभनो भवति सरागेषु सर्वेष्विति ॥५७३॥ अन्यच्च; तेसिं अहिमुहदाए प्रत्था सिझंति तह य भत्तीए। तो भत्ति रागपुव्वं वुच्चइ एवं ण हु णिदाणं ॥५७४॥ तेषां जिनवरादीनामभिमुखतया भक्त्या चार्था वांछितेष्टसिद्धयः सिध्यन्ति हस्तग्राह्या भवन्ति यस्मात्तस्माद्भक्ती "पूवकमेतदुच्यते न हि निदानं, संसारकारणाभावादिति ॥५७४॥ होती है । इसलिए जिनवरों की और आचार्यों की यह भक्ति निदान नहीं है। और भी कहते हैं गाथार्थ-राग रहित और द्वेष रहित अहंतदेव में जो राग है, धर्म में जो राग है, और द्वादशविध श्रुत में जो राग है--वह तीनों भक्ति हैं। __ आचार्यों में, श्रमणों में और चारित्रयुक्त बहुश्रुत विद्वानों में जो राग है यह प्रशस्त राग सभी सरागी मुनियों में होता है ।।५७२-५७३॥ प्राचारवृत्ति--रागद्वेष रहित अहंतों में, धर्म में, द्वादशांग श्रुत में, आचार्यों में, मुनियों में, चारित्रयुक्त बहुश्रुत विद्वानों में जो राग होता है वह प्रशस्त-शोभन राग है वह सभी सरागी मुनियों में पाया जाता है। अर्थात् सराग संयमी मुनि इन सभी में अनुराग रूप भक्ति करते ही हैं। और भी कहते हैं गाथार्थ-उनके अभिमुख होने से तथा उनकी भक्ति से मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए भक्ति रागपूर्वक कही गई है । यह वास्तव में निदान नहीं है ॥५७४।। प्राचारवत्ति-उन जिनवर आदिकों के अभिमुख होने से उनकी तरफ अपने मन को लगाने से, उनकी भक्ति से वांछित इष्ट की सिद्धि हो जाती है-इष्ट मनोरथ हस्तग्राह्य हो जाते हैं। इसलिए यह भक्ति रागपूर्वक ही होती है। यह निदान नहीं कहलाती है, क्योंकि इससे संसार के कारणों का अभाव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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