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________________ षडावश्यकाधिकारः] [४२३ किह ते ण कित्तणिज्जा सदेवमणुयासुरेहि लोगेहिं । दसणणाणचरित्ते तव विणो जेहिं पण्णत्तो॥५६५॥ कथं ते न कोर्तनीयाः व्यावर्णनीयाः सदेवमनुष्यासुरैर्लोकदर्शनज्ञानचारित्रतपसां विनयो यः प्रज्ञप्तः प्रतिपादितः ते चतुविशतितीर्थकराः कथं न कीर्तनीयाः ।।५६५॥ इति कीर्तनमधिकारं व्याख्याय केवलिनां स्वरूपमाह सव्वं केवलिकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति। केवलणाणचरित्ता' तह्मा ते केवली होति ॥५५६॥ किमर्थ केवलिन इत्युच्यन्त इत्याशंकायामाह-यस्मात्सर्व निरवशेष केवलिकल्पं केवलज्ञानविषय लोकमलोकं च जानन्ति तथा च पश्यंति केवलज्ञानमेव चरित्रं येषां ते केवलज्ञानचरित्राः परित्यक्ताशेषव्यापारास्तस्मात्ते केवलिनो भवंतीति ॥५६६।। अथोत्तमाः कथमित्याशंकायामाह मिच्छत्तवेदणीयं णाणावरणं चरित्तमोह च।। तिविहा तमाहु मुक्का तह्मा ते उत्तमा होति ॥५६७।। मिथ्यात्ववेदनीयमश्रद्धानरूपं ज्ञानावरणं ज्ञानदर्शयोरोवरणं चारित्रमोहश्चैतत्त्रिविधं तमस्तस्मात् गाथार्थ-देव, मनुष्य और असुर इन सहित लोगों के द्वारा वे अहंत कीर्तन करने योग्य क्यों नहीं होंगे ? जबकि उन्होंने दर्शन ज्ञान चारित्र और तप के विनय का प्रज्ञापन किया है ॥५६॥ आचारवृत्ति-वे चौबीस तीर्थंकर देव आदि सभीजनों द्वारा कीर्तन-वर्णन-प्रशंसन करने योग्य इसीलिए हैं, कि उन्होंने दर्शन आदि के विनय का उपदेश दिया है। इस तरह कीर्तन अधिकार को कहकर अब केवलियों का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-केवलज्ञान विषयक सर्वलोक को जानते हैं तथा देखते हैं, एवं केवलज्ञानरूप चारित्रवाले हैं इसलिए वे केवली होते हैं ।।५६६॥ आचारवृत्ति-अहंत को केवली क्यों कहते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंजिस हेतु वे अहंत भगवान केवलज्ञान के विषयभूत सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानते हैं तथा देखते हैं और जिनका चारित्र केवलज्ञान ही है अर्थात् जिनके अशेष व्यापार छूट चुके हैं इसलिए वे केवली कहलाते हैं। तीर्थंकर उत्तम क्यों हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ--मिथ्यात्व वेदनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोह इन तीन तम से मुक्त हो चुके हैं इसलिए वे उत्तम कहलाते हैं ।।५६७।। प्राचारवृत्ति-अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व वेदनीय है अर्थात् मिथ्यात्वकर्म के उदय से जीव को सम्यक् तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होता है । यह दर्शनमोह गाढ़ अंधकार के सदृश है । १ कणीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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