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[मूलाचार मुक्ता यतस्तस्मात्ते उत्तमाः प्रकृष्टा भवंतीति ॥५६७।।
त एवं विशिष्टा मम
आरोग्ग बोहिलाह दितु समाहिं च मे जिणरिदा।
कि ण हु णिदाणमेयं णवरि विभासेत्थ कायन्वा ॥५६८॥
एवं विशिष्टास्ते जिनवरेन्द्रा मह्यमारोग्यं जातिजरामरणाभावं बोधिलाभं च जिनसुत्रश्रद्धानं दीक्षाभिमुखीकरणं वा समाधि च मरणकाले सम्यक्परिणामं ददतु प्रयच्छन्तु, किं पुनरिदं निदानं न भवति न भवत्येव कस्माद्विभाषाऽत्र विकल्पोऽत्र कर्तव्यो यस्मादिति ॥५६८।।
एतस्माच्चेदं निदानं न भवति यतः--
ज्ञानावरण से दर्शनावरण भी आ जाता है चूंकि वे सहचारी हैं। चारित्रमोह से मोहनीय की, दर्शनमोह से अतिरिक्त सारी प्रकृतियाँ आ जाती हैं। ये मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण और दर्शनावरण तीनों ही कर्म 'तम' के समान हैं इस 'तम' से मुक्त हो जाने से ही तीर्थंकर 'उत्तम' शब्द से कहे जाते हैं।
इन विशेषणों से विशिष्ट तीर्थकर हमें क्या देवें ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य, बोधि का लाभ और समाधि प्रदान करें। क्या यह निदान नहीं है ? अर्थात् नहीं है, यहाँ केवल विकल्प समझना चाहिए ॥५६॥
आचारवृत्ति--इस प्रकार से पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य-जन्ममरण का अभाव, बोधिलाभ-जिन सूत्र का श्रद्धान अथवा दीक्षा के अभिमुख होना, और समाधि-मरण के समय सम्यक् परिणाम इन तीन को प्रदान करें।
क्या यह निदान नहीं है ? नहीं है। क्यों? क्योंकि यहाँ पर इसे विभाषा-विकल्प समझना चाहिए।
भावार्थ--गाथा ५४१ में तीर्थंकरस्तव के प्रकरण में सात विशेषण बताये थे—लोकोद्योतकर, धर्मतीर्थकर, जिनवर, अहंत, कीर्तनीय, केवली और उत्तम । पुनः उनसे बोधि को प्रार्थना की थी। उनमें से प्रत्येक विशेषण के एक-एक पदों को पृथक् कर करके उनका विशेष अर्थ किया है। १२ गाथा पर्यंत 'लोक' शब्द का व्याख्यान किया है, ५ गाथाओं में 'उद्योत' का, ४ गाथाओं में 'तीर्थ' का, १ गाथा के पूर्वार्ध में 'जिनवर' का एवं उत्तरार्ध तथा एक और गाथा में 'अर्हत' का, १ गाथा में कीर्तनीय' का, १ गाथा में 'केवलो' का, १ गाथा में 'उत्तम' का एवं अन्त की गाथा में 'बोधि' की प्रार्थना का स्पष्टीकरण किया है।
यहाँ जो वीतरागदेव से याचना की गई है सो आचार्य का कहना है कि यह निदान नहीं है बल्कि भक्ति का एक प्रकार है।
किस कारण से यह निदान नहीं है सो बताते हैं
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