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________________ ४२२] [मूलाचारे यस्माज्जितक्रोधमानमायालोभास्तस्मात्तेन कारणेन ते जिना इति भवंति येनारीणां हन्तारो जन्मनः संसारस्य च हन्तारस्तेनार्हन्त इत्युच्यन्ते ॥५६३।। येन च अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चति ॥५६४॥ वंदनाया नमस्कारस्य च योग्या वंदनां नमस्कारमर्हति, पूजायाः सत्कारस्य च योग्याः पूजासत्कारमहन्ति च यतः सिद्धिगमनस्य च योग्या:-सिद्धिगमनमर्हन्ति, यस्मात्तेनाऽर्हन्त इत्युच्यन्ते ।।५६४|| किमर्थमेते कीर्त्यन्त इत्याशंकायामाह आचारवृत्ति-जिस कारण से उन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है इसी कारण से वे 'जिन' कहलाते हैं । तथा जिस कारण से वे मोह शत्रु के तथा संसार के नाश करनेवाले हैं इसी कारण से वे 'अरिहंत' इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं । और भी अरिहंत शब्द की निरुक्ति करते हैं गाथार्थ-वन्दना और नमस्कार के योग्य हैं, पूजा सत्कार के योग्य हैं और सिद्धि गमन के योग्य हैं इसलिए वे 'अहंत' कहलाते हैं ॥५६४॥ प्राचारवृत्ति-अर्हतदेव वन्दना, नमस्कार, पूजा, सत्कार आर माक्ष गमन के योग्य हैं-समर्थ हैं अतएव वे 'अहंत' इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं। भावार्थ-अरिहंत और अहंत दो पद माने गये हैं अतः यहाँ पर दोनों पदों की व्युत्पत्ति दिखाई है । जो अरि अर्थात् मोह कर्म का हनन करनेवाले हैं वे 'अरिहंत' हैं और 'अहं' धातु पूजा तथा क्षमता अर्थ में है अतः जो वन्दना आदि के लिए योग्य हैं, पूज्य हैं, सक्षम हैं वे 'अर्हत' इन नाम से कहे जाते हैं। महामन्त्र में 'अरिहंताणं' और 'अरहंताणं' दोनों पद मिलते हैं वे दोनों ही शुद्ध माने गये हैं। किसलिए इनका कीर्तन किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है तण्हावदाहछेदणकम्ममलविणासणसमत्थं । तिहिं कारणेहि जुत्त सुत्त पुण भावदो तित्थं ॥ अर्थ-जो तृष्णा और दाह का छेदन करने वाला है तथा कर्म मल को विनाश करने में समर्थ है । इन तीन कारणों से जो युक्त है वह सूत्र भाव से तीर्थ है। अर्थात् द्वादशांग सूत्र रूप श्रुतधर्म को भावतीर्थ कहा है । वह तीर्थ सांसारिक विषयों की अभिलाषा रूप तृष्णा को दूर करता है, कर्मोदय जनित नाना प्रकार के दुःख रूप दाह को शांत करता है और कर्ममल को दूर करने में समर्थ है । इन तीन गुणों से युक्त होने से जिनवाणी ही सच्चा भावतीर्थ है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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