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________________ षगवश्यकाधिकारः] [४०६ भेदेन द्विविधः । चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभूतज्ञायी उपयुक्त आगमभावचविंशतिस्तवः । चतुर्विशतिस्तवपरिणतपरिणामो. नोआगमभावस्तव इति। भरतैरावतापेक्षश्चतुर्विशतिस्तव उक्तः। पूर्वविदेहा'परविदेहापेक्षस्तु सामान्यतीर्थकरस्तव इति कृत्वा न दोष इति ॥५४०॥ अत्र नामस्तवेन भावस्तवेन प्रयोजनं सर्वा प्रयोजनं । तदर्थमाह लोगुज्जोए धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसतु ।।५४१॥ लोको जगत् । उद्योतः प्रकाशः । धर्म उत्तमक्षमादिः। तीर्थ संसारतारणोपायं । धर्ममेव तीर्थं कुर्वन्तीति धर्मतीर्थकराः । कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा प्रधाना जिनवराः । अर्हन्तः सर्वज्ञाः। कीर्तनं प्रशंसनं कीर्तनीया वा केवलिनः सर्वप्रत्यक्षाववोधाः । एवं च । उत्तमा: प्रकृष्टाः सर्वपूज्याः । मे बोधिं संसारनिस्तरणोपायं। दिशन्तु ददतु। एवं स्तवः क्रियते। अर्हन्तो लोकोद्योतकरा धर्मतीर्थकरा जिनवराः चौबीस तीर्थंकरों से सहित क्षेत्र का स्तवन करना क्षेत्रस्तव है। चौबीस तीर्थंकरों से सहित काल अथवा गर्भ, जन्म आदि का जो काल है उनका स्तवन करना काल-स्तव है। ___भावस्तव भी आगम, नोआगम की अपेक्षा दो प्रकार का है। चौबीस तीर्थंकरों के का वर्णन करने वाले प्राभत के जो ज्ञाता हैं और उसमें उपयोग भी जिनका लगा हुआ है उन्हें आगमभाव चतुर्विंशति-स्तव कहते हैं। चतुविंशति तीर्थंकरों के स्तवन से परिणत हुए परिणाम को नोआगम भाव-स्तव कहते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा यह चतुर्विंशति स्तव कहा गया है। किन्तु पूर्वविदेह और अपरविदेह की अपेक्षा से सामान्य तीर्थकर स्तव समझना चाहिए। इस प्रकार से इसमें कोई दोष नहीं है । अर्थात् पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में ही चतुर्थ काल में चौबीसचौबीस तीर्थंकर होते हैं किन्तु एक सौ साठ विदेह क्षेत्रों में हमेशा ही तीर्थकर होते रहते हैं अतः उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है। उनकी अपेक्षा से इस आवश्यक को सामान्यतया तीर्थकर स्तव ही कहना चाहिए इसमें कोई दोष नहीं है। यहाँ पर नामस्तव से प्रयोजन है या भावस्तव से अथवा सभी स्तवों से ? ऐसा प्रश्न होने पर उसी का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ-लोक में उद्योत करनेवाले धर्म तीर्थ के कर्ता अर्हन्त केवली जिनेश्वर प्रशंसा के योग्य हैं। वे मुझे उत्तम बोधि प्रदान करें ॥५४१।। आचारवृत्ति-लोक अर्थात् जगत् में उद्योत अर्थात् प्रकाश को करनेवाले लोको द्योतकर कहलाते हैं । उत्तमक्षमादि को धर्म कहते हैं और संसार से पार होने के उपाय को ती कहते हैं अतः यह धर्म हो तीर्थ है। इस धर्मतीर्थ को करनेवाले अर्थात् चलानेवाले धर्म तीर्थंक कहलाते हैं। कर्मरूपी शत्रुओं को जोतनेवाले को जिन कहते हैं और उनमें वर अर्थात् जो प्रधा १ क पूर्वविदेहापेक्षस्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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