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________________ ४१०] [मूलाचारे केवलिन उतमाश्च ये तेषां कीर्तनं प्रशंसनं वोधि महय दिशन्तु प्रयच्छन्तु । अथवा एते अहंतो धर्मतीर्थकरा लोकोद्योतकरा: जिनवराः कीर्तनीया उत्तमाः केवलिनोमम बोधि दिशन्त । अथवा अर्हन्तः सर्वविशेषणविशिष्टाः केवलिनां च कीर्तनं मह्य बोधि प्रयच्छन्त्विति सम्बन्धः॥५४१॥ एतैर्दशभिरधिकारैश्चतुर्विंशतिस्तवो व्याख्यायत इति कृत्वादौ तावल्लोकनिरुक्तिमाह लोयदि आलोयदि पल्लोयदि सल्लोयदित्ति एगत्थो'। जह्मा जिहि कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोगो ॥५४२।। लोक्वते आलोक्यते प्रलोक्यते संलोक्यते दृश्यते इत्येकार्थः । कैजिनैरिति तस्माल्लोक इत्युच्यते ? कथं छद्मस्थावस्थायां-मतिज्ञानश्रुतज्ञानाभ्यां लोक्यते दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवावधिज्ञानेनालोक्यते पदगलमर्यादारूपेण दश्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवा मनःपर्ययज्ञानेन प्रलोक्यते विशेषेण रूपेण दश्यते हैं वे जिनवर कहलाते हैं । सर्वज्ञदेव को अर्हन्त कहते हैं। तथा सर्व को प्रत्यक्ष करनेवाला जिनका ज्ञान है वे केवली हैं। इन विशेषणों से विशिष्ट अर्हन्त भगवान् उत्तम हैं, प्रकृष्ट हैं, सर्व प्रज्य हैं । ऐसे जिनेन्द्र भगवान् मुझे संसार से पार होने के लिए उपायभूत ऐसी बोधि को प्रदान करें। इस प्रकार से यह स्तव किया जाता है। तात्पर्य यह है कि लोक में उद्योतकारी, धर्मतीर्थंकर, जिनवर, केवली, अर्हन्त भगवान • उत्तम हैं। इस प्रकार से उनका कीर्तन करना, उनको प्रशंसा करना तथा 'वे मूझे बोधि प्रदान करें" ऐसा कहना ही स्तव है । अथवा ये अर्हन्त, धर्मतीर्थकर, लोकोद्योतकर, जिनवर, कीर्तनीय. उत्तम, केवली भगवान् मुझे बोधि प्रदान करें। अथवा अर्हन्त भगवान् सर्व विशेषणों से विशिष्ट हैं वे मुझे बोधि प्रदान करें ऐसा केवली भगवान् का स्तवन करना ही स्तव है। अब आगे इन्हीं दश अधिकारों द्वारा चतुर्विंशतिस्तव का व्याख्यान किया जाता है। उसमें सर्वप्रथम लोक शब्द की निरुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं--- गाथार्थ-लोकित किया जाता है, आलोकित किया जाता है, प्रलोकित किया जाता है और संलोकित किया जाता है, ये चारों क्रियाएँ एक अर्थवाली हैं। जिस हेतु से जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सब कुछ अवलोकित किया जाता है इसीलिए यह 'लोक' कहा जाता है ।५४२॥ प्राचारवत्ति-लोकन करना--(अवलोकन करना), आलोकन करना, प्रलोकन करना, संलोकन करना, और देखना ये शब्द पर्यायवाची शब्द हैं। जिनेन्द्र देव द्वारा यह सर्वजगत् लोकित—अवलोकित कर लिया जाता है इसीलिए इसकी 'लोक' यह संज्ञा सार्थक है। यहाँ पर इन चारों क्रियाओं का पृथक्करण करते हुए भी टीकाकार स्पष्ट करते हैं। छद्मस्थ अवस्था में मति और श्रुत इन दो ज्ञानों के द्वारा यह सर्व 'लोक्यते' अर्थात् देखा जाता है इसीलिए इसे 'लोक' कहते हैं । अथवा अवधिज्ञान द्वारा मर्यादारूप से यह 'आलोक्यते' आलोकित किया जाता है इसलिए यह 'लोक' कहलाता है । अथवा मन.पर्ययज्ञान के द्वारा 'प्रलोक्यते' विशेष रूप से यह देखा जाता है अतः 'लोक' कहलाता है । अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्री जिनेन्द्र भगवान् इस १क एयट्ठो। Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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