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________________ ४०८] [मूलाचार नामस्तवः स्थापनास्तवो द्रव्यस्तवः क्षेत्रस्तवः कालस्तवो भावस्तव एष स्तवे निक्षेपः षविधो भवति ज्ञातव्यः । चतुर्विशतितीर्थकराणां यथार्थानुगतैरष्टोत्तरसहस्रसंख्यामभिः स्तवनं चतुर्विशतिनामस्तवः, चतुर्विशतितीर्थकराणामपरिमितानां कृत्रिमाकृत्रिमस्थापनानां स्तवनं चतुविंशतिस्थापनास्तवः। तीर्थकरशरीराणां परमौदारिकस्वरूपाणां वर्णभेदेन स्तवनं द्रव्यस्तवः । कैलाससम्मेदोर्जयन्तपावाचम्पानगरादिनिर्वाणक्षेत्राणां समवसतिक्षत्राणां च स्तवनं क्षेत्रस्तवः । स्वर्गावतरणजन्मनिष्क्रमणकेवलोत्पत्तिनिर्वाणकालानां स्तवनं कालस्तवः । केवलज्ञानकेवलदर्शनादिगुणानां स्तवनं भावस्तवः। अथवा जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्ष संज्ञाकर्म चतुर्विंशतिमात्र नामस्तवः । चतुर्विंशतितीर्थकराणां साकृत्यनाकृतिवस्तुनि गुणानारोप्य स्तवनं स्थापनास्तवः । द्रव्यस्तवो द्विविधः आगमनोआगमभेदेन । चविंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभतज्ञाय्यनुपयुक्त आगमद्रव्यस्तवः । चतविंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभत'ज्ञायक-शरीरभाविजीवतद्वयतिरिक्तभेदेन नोआगमद्रव्यस्तवस्त्रिविध: पूर्ववत्सर्वमन्यत् । चतुर्विंशतिस्तवसहितं क्षेत्र कालश्च क्षेत्रस्तवः कालस्तवश्च । भावस्तव आगमनोआगम प्राचारवृत्ति-स्तव में नामस्तव, स्थापनास्तव, द्रव्यस्तव, क्षेत्रस्तव, कालस्तव और भावस्तव यह छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए। चौबीस तीर्थंकरों के वास्तविक अर्थ का अनुसरण करने वाले एक हजार आठ नामों से स्तवन करना चतुविशति नामस्तव है । चौबीस तीर्थंकरों की कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाएँ स्थापना प्रतिमाएँ हैं जो कि अपरिमित हैं। अर्थात् कृत्रिम प्रतिमाएँ अगणित हैं, अकृत्रिम प्रतिमाएं तो असंख्य हैं उनका स्तवन करना चतुर्विंशति स्थापना-स्तव है। तीर्थंकरों के शरीर, जो कि परमौदारिक हैं, के वर्णभेदों का वर्णन करते हुए स्तवन करना द्रव्यस्तव है । कैलाशगिरि, सम्मेदगिरि, ऊर्जयन्तगिरि, पावापुरी, चम्पापुरी आदि निर्वाण क्षेत्रों का और समवसरण क्षेत्रों का स्तवन करना क्षेत्रस्तव है। स्वर्गावतरण, जन्म, निष्क्रमण, केवलोत्पत्ति और निर्वाणकल्याणक के काल का स्तवन करना अर्थात् उन-उन कल्याणकों के दिन भक्तिपाठ आदि करना या उन-उन तिथियों की स्तुति करना कालस्तव है। तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि गुणों का स्तवन करना भावस्तव है। अथवा जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष चतुर्विशति मात्र का नामकरण है वह नामस्तव है। चौबीस तीर्थंकरों को आकारवान अथवा अनाकारवान अर्थात् तदाकार अथवा अतदाकार वस्तु में गुणों का आरोपण करके स्तवन करना स्थापनास्तव है। आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यस्तव दो प्रकार का है। जो चौबीस तीर्थकरों के स्तवन का वणन करने वाले प्राभूत का ज्ञाता है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है ऐसा आत्मा आगमद्रव्यस्तव है। नो-आगम द्रव्यस्तव के तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। चौबीस तीर्थंकरों के स्तव का वर्णन करनेवाले प्राभूत के ज्ञाता का शरीर ज्ञायकशरीर है। इसके भी भूत, भविष्यत्, वर्तमान की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं। बाकी सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। १ क तज्ञश। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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