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________________ षडावश्यकाधिकारः] [३९७ यो जानाति समवायं सादृश्यं स्वरूप वाद्रव्याणांगद्रव्यसमवायं क्षेत्रसमवायं कालसमवायं भावसमवायं च जानातिा तत्र द्रव्यसमवायो नाम धर्माधर्मलोकाकाशैकजीवप्रदेशा:समा:।क्षेत्रसमवायोनामसीमन्तनरकमनुष्यक्षेत्र“विमानसिद्धालयाः समाः । कालसमवायो नाम समयः समयेन समः, अवसर्पिण्युत्सर्पिण्या समेत्यादि । भावसमवायो नाम केवलज्ञानं केवलदर्शनेन सममिति । गुणा रूपरसगन्धस्पर्शज्ञातत्वद्रष्टत्वादयस्तेषां समानतां जानाति । अथवौदयिकोपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिका गुणास्तेषां समानतां जानाति । पर्याया नारकत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वदेवत्वादयस्तेषां समानतां जानाति । द्रव्याधारत्वेनापृथग्वतित्वेन च गुणानां समवायः। पर्यायाणां उत्पादविनाशध्रौव्यत्वेन समवायो भावसमवायो गुणेष्वन्तर्भवति। क्षेत्रसमवाय: पर्यायेष्वन्तर्भवति। कालसमवायो द्रव्यसमवायेऽन्तर्भवतीति । द्रव्यसमवायं गुणसमवायं पर्यायसमवायं च यो जानाति तेषां सिद्धि' सद्भाव निष्पन्नं परमार्थरूपं च यो जानाति तं संयतं सामायिक मुत्तमं जानीहि । अथवा द्रव्याणां समवायं सिद्धि, गुण साथ ऐक्य बतलाया है और अब इस गाथा के द्वारा जीव के साथ ज्ञान का समागमन -ऐक्य बतलाते हैं। जो द्रव्यों के समवाय अर्थात् सादृश्य को अथवा स्वरूप को जानते हैं अर्थात् वाय, क्षेत्र समवाय, काल समवाय और भाव समवाय को जानते हैं वे मुनि उत्तम सामायिक कहलाते हैं। उसमें द्रव्य के समवाय-सादृश्य को कहते हैं। द्रव्यों की सदृशता का नाम द्रव्य समवाय है; जैसे धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव-इनके प्रदेश समान हैं अर्थात् इन चारों में असंख्यात प्रदेश हैं और वे पूर्णतया समान हैं। ऐसे ही क्षेत्र से सदृशता क्षेत्र समवाय है। प्रथम नरक का सीमंतक बिल, मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप), प्रथम स्वर्ग का ऋजुविमान और सिद्धालय ये समान हैं अर्थात् ये सभी पैंतालीस लाख योजन प्रमाण हैं। काल की सदृशता काल-समवाय है, जैसे समय समय के समान है, अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के समान है इत्यादि । भावों की सदृशता भाव-समवाय है; जैसे केवलज्ञान केवल दर्शन के समान है। रूप-रस-गंध आर स्पर्श तथा ज्ञातृत्व और द्रष्टुत्व आदि गुणों की समानता को जो जानते हैं वे गुणों के समवाय को जानते हैं। अथवा जो औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक गुण हैं उनकी समानता को जानना गुणसमवाय है। नारकत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और देवत्व आदि पर्यायें हैं। इनकी समानता को जानना पर्यायसमवाय है । अर्थात् जो द्रव्य के आधार में रहते हैं और द्रव्य से अपृथग्वर्ती हैं-कभी भी उनसे पृथक् नहीं किए जा सकते हैं अतः अयुतसिद्ध हैं, यह गुणों का समवाय है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से पर्यायों का समवाय होता है। ऊपर में जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव समवाय कहे गए हैं उनको द्रव्य, गुण और पर्यायों के अन्तर्गत करने से द्रव्य, गुण और पर्याय नाम से तीन प्रकार के समवाय माने जाते हैं। सो ही बताते हैं कि भाव समवाय गुणों में अन्तर्भूत हो जाता है । क्षेत्रसमवाय पर्यायों में, काल समवाय द्रव्यसमवाय में अन्तर्भूत हो जाता है । इस तरह जो मुनि द्रव्यसमवाय, गुणसमवाय और पर्यायसमवाय को जानते हैं, इनकी सिद्धि को निष्पन्नता को अर्थात् पूर्णता को और इनके सद्भाव को-परमार्थ रूप को जानते हैं उन संयतों को तुम उत्तम सामायिक जानो। १क सिद्ध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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