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________________ ३६६] [मूलाचारे जिदउवसग्गपरीसह उवजुत्तो भावणासु समिदीसु। जमणियमउज्जदमदी सामाइयपरिणदो जीवो।।५२०॥ जिता: सोढा उपसर्गाः परीषहाश्च येन स जितोपसर्गपरीषहः समितिषु भावनासु चोपयुक्तो यः यमनियमोद्यतमतिश्च । यः, स सामायिकपरिणतो जीव इति ॥५२०॥ तथा जं च तमो अप्पाण परे य मादूय सव्वमहिलासु। अप्पियपियमाणादिसु तो समणो तो य सामइयं ।।५२१।। यस्माच्च समो रागद्वेषरहित आत्मनि परे च, यस्माच्च मातरि सर्वमहिलासु च शुद्धभावेन समानः, सर्वा योषितो मातृसदृशः पश्यति, यस्माच्च गियाप्रियेषु समानः, यस्माच्च मानापमानादिषु समानस्तस्मात् स श्रवणस्ततश्च तं सामायिक जानीहीति' ।।५२१॥ जो जाणइ समवायं दव्याण गुणाण पज्जयाणं च । सबभावं तं सिद्धं सामाइयमुत्तमं जाणे ॥५२२॥ पूर्वगाथाभ्यां सम्यक्त्वसंयमयोः समागमन' व्याख्यातं अनया पुनर्गाथया ज्ञानसमागमन माचष्टे । गाथार्थ-जिन्होंने उपसर्ग और परीषह को जीत लिया है, जो भावना और समितियों में उपयुक्त हैं, यम और नियम में उद्यमशोल हैं, वे जीव सामायिक से परिणत हैं ॥५.२०॥ आचारवृत्ति-जो उपसर्ग और परीषहों को जीतनेवाले होने से जितेन्द्रिय हैं, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं अथवा मैत्री आदि भावनाओं में तथा समितियों में लगे हुए हैं, यम और नियम में तत्पर हैं वे मुनि सामायिक से परिणत हैं ऐसा समझो। उसी प्रकार गाथार्थ-जिस कारण से अपने और पर में, माता और सर्व महिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान-अपमान आदि में समानभाव होता है इसी कारण से वे श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं ॥५२१॥ प्राचारवृत्ति--जिससे वे अपने और पर में राग-द्वेष रहित समभाव हैं, जिससे वे माता और सर्व महिलाओं में शुद्धभाव से समान हैं अर्थात् सभी स्त्रियों को माता के सदृश देखते हैं, जिस हेतु से प्रिय और अप्रिय में समानभावी हैं और जिस हेतु से वे मान-अपमान (आदि शब्द से जोवन-मरण 'सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, महल, श्मशान तथा शत्रु-मित्र आदि) में जो समभावी हैं, इन्हीं हेतुओं से वे श्रमण कहलाते हैं और इसीलिए तुम उन्हें सामायिक जानो। यहां पर समताभाव से युक्त मुनि को ही सामायिक कहा है। गाथार्थ-जो द्रव्यों के, गुणों के और पर्यायों के समवाय को और सद्भाव को जानता है उसके उत्तम सामायिक सिद्ध हुई ऐसा तुम जानो ॥५२२॥ प्राचारवृत्ति-पूर्व में दो गाथाओं द्वारा सम्यक्त्व और संयम का समागमन अर्थात् १ क “ति सम्बन्धः । तथा- २ क सज्झावत्तं सि । ३ क जाण । ४-५ क समगमनं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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