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________________ षडावश्यकाधिकारः] [३६५ सामायिकं करोति स काल: पूर्वाहादिभेदभिन्न: कालसामायिकं । भावसामायिक द्विविधं, आगमभावसामायिक, नोआगमभावसामायिक चेति । सामायिकवर्णनप्राभूतज्ञाय्युपयुक्तो जीव आगमभावसामायिकं नाम, सामायिकपरिणतपरिणामादि नोआगमभावसामायिक नाम । तथेषां मध्ये आगमभावसामायिकेन नोआगमभावसामायिकेन च प्रयोजनमिति ॥५१८।। निरुक्तिपूर्वकं भावसामायिकं प्रतिपादयन्नाह सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं पसत्थसमगमणं । समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाण ॥५१६।। सम्यक्त्वज्ञानसंयमतपोभिर्यत्तत् प्रशस्तं समागमनं प्रापणं तैः सहैक्यं च जीवस्य यत् समयस्तु समय एव भणितस्तमेव सामायिक जानीहि ॥५१६। तथा यः सामायिक से परिणित हुए जीव से अधिष्ठित क्षेत्र क्षेत्र-सामायिक है। जिस काल में सामायिक करते हैं, पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न आदि भेद युक्त काल काल-सामायिक है। भाव-सामायिक के भी दो भेद हैं--आगमभाव-सामायिक और नोआगम भाव-सामायिक । सामायिक के वर्णन करनेवाले--प्राभृत-ग्रन्थ का जो ज्ञाता है और उसके उपयोग से युक्त है वह जीव आगमभाव-सामायिक है। और, सामायिक से परिणत परिणाम आदि को नोआगमभाव सामायिक कहते हैं। ___ इनमें से यहाँ आगम-भाव सामायिक और नो-आगमभाव सामायिक से प्रयोजन है ऐसा समझना। भावार्थ-यहाँ पर सामायिक के छह भेद दो प्रकार से बताये गये हैं। उनमें पहले जो शभ-अशभ नाम आदि में समताभाव रखना, राग-द्वेष नहीं करना बतलाया है वह भेदरूप सामायिक उपादेय है। इस साम्यभावना के लिए ही मुनिजन सारे अनुष्ठान करते हैं। अनन्तर जो नाम आदि निक्षेप घटित किये हैं उनमें अन्त में जो भाव निक्षेप है वही यहाँ पर उपादेय है ऐसा समझना । इन निक्षेपों का विस्तृत विवेचन राजवार्तिक, धवला टीका आदि से समझना चाहिए। ___ निरुक्तिपूर्वक भावसामायिक का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है वह समय कहा गया है, तुम उसे ही सामायिक जानो ॥५१६॥ आचारवत्ति-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के साथ जो जीव का ऐक्य है वह 'समय' इस नाम से कहा जाता है और उस समय को ही सामायिक कहते हैं (यहाँ पर 'समय' शब्द से स्वार्थ में इकण् प्रत्यय होकर 'समय एव सामायिक' ऐसा शब्द बना) उसी प्रकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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