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________________ ३६८ [ मूलाचारे पर्यायाणां च सद्भावं यो जानाति तं सामायिक जानीहि । अथवा 'समवृत्ति समवायं, द्रव्यगुणपर्यायाणां समवत्ति, द्रव्यं गुणविरहितं नास्ति गुणाश्च द्रव्यविरहिता न सन्ति पर्यायाश्च द्रव्यगुणरहिता न सन्ति । एवंभूतं समवृत्ति समवायं सद्भावरूपं न संवृत्तिरूपं, न कल्पनारूपं, नाप्यविद्यारूपं, स्वत: सिद्धं न समवायद्रव्यबलेन यो जानाति तं सामायिक जानीहीति सम्बन्धः ॥५२२॥ गणों से सम्यक्त्वचारित्रपूर्वकं सामायिकमाह रागदोसे णिरोहित्ता समदा सव्वकम्मसु। सुत्तेसु य परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे ॥५२३॥ अथवा द्रव्यों की समवाय सिद्धि को और गुणों तथा पर्यायों के सद्भाव को जो जानते हैं उन्हें सामायिक जानो। अथवा समवृत्ति-सहवृत्ति अर्थात् साथ-साथ रहने का नाम समवाय है। इस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायों को सहवृत्ति को जो जानते हैं उनको तुम सामायिक जानो । जैसे द्रव्य गुणों से विरहित नहीं है, और गुण द्रव्य से विरहित नहीं रहते हैं तथा पर्यायें भी द्रव्य और गुण रहित होकर नहीं होती हैं। इस प्रकार का जो सहवत्ति रूप समवाय है वह सदभाव रूप है, वह न संवृत्ति रूप है न ही कल्पनारूप और न अविद्यारूप ही है। वह समवाय किसी एक पृथग्भूतसमवाय नामक पदार्थ के बल से सिद्ध नहीं है बल्कि स्वतःसिद्ध है ऐसा जो मुनि जानते हैं उनको ही तुम सामायिक जानो, ऐसा गाथा के अर्थ का सम्बन्ध होता है। भावार्थ अन्य सम्प्रदायों में कोई द्रव्य, गुण और पर्यायों को पृथक्-पृथक् मानते हैं। कोई उन्हें संवृति-असत्यरूप मानते हैं इत्यादि, उन्हीं की मान्यता का यहाँ अन्त में निराकरण किया गया है । जैसे कि बौद्ध द्रव्य, गुण आदि को सर्वथा संवृतिरूप अर्थात् असत्य मानते हैं। शून्यवादी आदि सभी कुछ कल्पनारूप मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादी इस चराचर जगत् को अविद्या-माया का विलास मानते हैं । और यौग द्रव्य को गुणों से पृथक् मानकर समवाय सम्बन्ध से गुणी कहते हैं अर्थात् अग्नि को उष्ण गुण समवाय सम्बन्ध से उष्ण कहते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने द्रव्य, गुण पर्यायों को सर्वथा अपृथग्रूप-तादात्म्य सम्बन्धयुत माना है अतः वास्तव में यह द्रव्य गुण पर्यायों का समवाय-तादात्म्य स्वतःसिद्ध है, परमार्थभूत है ऐसा समझना । और इस सम्यग्ज्ञान से परिणत हुए महामुनि स्वयं सामायिक रूप ही हैं ऐसा यहाँ कहा गया है। क्योंकि इस परामार्थज्ञान के साथ उन मुनि का ऐक्य हो रहा है इसलिए वे मुनि ही 'सामायिक' इस नाम से कहे गए हैं। सम्यक्त्व चारित्रपूर्वक सामायिक को कहते हैं__गाथार्थ-राग-द्वेष का निरोध करके सभी कार्यों में समता भाव होना, और सूत्रों में परिणाम होना-इनको तुम उत्तम सामायिक जानो ॥५२३।। १ क समवायवृत्ति द्र'। २ क एवं निर्वृत्तिसमवायं सद्भावरूपं। ३ क समकं मदा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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