SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० ] एवंगुणजुत्ताणं पंचगुरूणं विसुद्ध करणेहिं । जो कुणदि णमोक्कारं सो पावदि णिव्वुदि सिग्धं ॥ ५१३॥ * एवं गुणयुक्तानां पंचगुरूणां पंचपरमेष्ठिनां सुनिर्मलमनोवाक्कायैर्यः करोति नमस्कारं स प्राप्नोति निर्वृतिं सिद्धिसुखं शीघ्र न पौनरुक्त्यं, द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोरुभयोरपि संग्रहार्थत्वादिति ॥ ५१३।। किमर्थं पंचनमस्कारः क्रियत इति चेदित्याह [मूलाचारे एसो पंच णमोयारो सव्वपावपणासणो । मंगले य सव्वेसु पढमं हवदि मंगलं ॥ ५१४ ॥ एष पंचनमस्कारः सर्वपापप्रणाशकः सर्वविघ्नविनाशकः मलं पापं गालयन्तीति विनाशयन्ति, मर्गे गाथार्थ -- इन गुणों से युक्त पाँचों परम गुरुओं को जो विशुद्ध मन-वचन-काय से नमस्कार करता है वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर लेता है ॥५१३॥ आचारवृत्ति - यहाँ प्रश्न यह होता है कि आपने पहले पृथक्-पृथक् पाँचों परमेष्ठियों के नमस्कार का फल निर्वाण बताया है पुनः यहाँ पाँचों के नमस्कार का फल एक साथ फिर क्यों कहा ? यह तो पुनरुक्ति दोष हो गया । इस पर आचार्य समाधान करते हैं कि यह पुनरुक्ति दोष नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का यहाँ पर संग्रह किया गया है । अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अर्थ को समझने वाले संक्षेप रुचि वालों के लिए यह समष्टिरूप कथन है और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से विस्तार में रुचि रखनेवाले शिष्यों के लिए पहले विस्तार से कहा जा चुका है । पंच परमेष्ठी को नमस्कार किसलिए किया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैंगाथार्थ -- यह पंच नमस्कार मन्त्र सर्वपापों का नाश करने वाला है और सर्वमंगलों में यह प्रथम मंगल है ॥५१४ ॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति - यह पंच नमस्कार मंत्र सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करने वाला है इसलिए मंगल स्वरूप है । मंगल का व्युत्पत्ति अर्थ करते हैं कि जो मल-पाप का गालन करते हैं- विनाश करते हैं, अथवा जो मंगं अर्थात् सुख को लाते हैं-देते हैं वे मंगल हैं । इस मंगल के दो भेद होते हैं द्रव्य मंगल और भाव मंगल । जिस हेतु से इन दोनों प्रकारों के सम्पूर्ण मंगलों में पंचनमस्कार *यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है— साहूण णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पाइव अचिरेण कालेन । अर्थ — जो स्थिरचित्त हुआ भव्यजीव भावपूर्वक साधुओं को नमस्कार करता है वह तत्काल ही सर्वदुःखों से छूटकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है । 'साहूण' की जगह 'अरहंत' शब्द देकर ज्यों की त्यों यह गाथा गाथा क्र० ५०६ पर अंकित है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy