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________________ ustarकाधिकारः ] [ ३६१ सुखं लान्त्याददतीति वा मंगलानीति तेषु मंगलेषु द्रव्यमंगलेषु भावमंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं भवति मंगलं यस्मातस्मात् सर्वशास्त्रादौ मंगलं क्रियत इति ॥ ५१४।। पंचनमस्कारनिरुक्तिमाख्यायावश्यक निर्युक्ते निरुक्तिमाह--- ण वसो वसो अवसस्स कम्ममावस्सयंति बोधव्वा । जुत्तित्ति उवायत्ति यणिरवयवा होदि णिज्जुत्ती ॥५१५॥ न वश्यः पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषत्कषायरागद्वेषादिभिरनात्मीयकृतस्तस्यावश्यकस्य यत्कर्मानुष्ठानं तदावश्यकमिति बोद्धव्यं ज्ञातव्यं । युक्तिरिति उपाय इति चैकार्थः । निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति निर्युक्तिः । आवश्यकानां निर्यु क्तिरावश्यक निर्युक्तिरावश्यक सम्पूर्णोपायः अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्याववोधकं पृथक्पृथक् स्तुति' स्वरूपेण "जयति भगवानित्यादि" प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्ध शास्त्रं न्याय आवश्यक नियुक्तिरित्युच्यते । सा च षट्प्रकारा भवति ।। ५१५ ।। प्रथम मंगल है इसी से सम्पूर्ण शास्त्रों के प्रारम्भ में वह मंगल किया जाता है ऐसा समझना चाहिए । पंच नमस्कार की व्युत्पत्ति का व्याख्यान करके अब आवश्यक निर्युक्ति का निरुक्ति अर्थ कहते हैं गाथार्थ - जो वश में नहीं हैं वह अवश है । उस अवश की मुनि की क्रिया को आवश्यक जानना चाहिए । युक्ति और उपाय एक हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण उपाय निर्युक्ति कहलाता है ।। ५१५। श्राचारवृत्ति - जो पाप आदि के वश्य नहीं हैं वे अवश्य हैं । जब जो इन्द्रिय, कषाय, कषाय और राग द्वेष आदि के द्वारा आत्मीय नहीं किये गये हैं अर्थात् जिस समय इन इन्द्रिय कषाय आदिकों ने जिन्हें अपने वश में नहीं किया है उस समय वे मुनि अवश्य होने से आवश्यक कहलाते हैं और उनका जो कर्म अर्थात् अनुष्ठान है वह आवश्यक कहा गया है ऐसा जानना चाहिए। युक्ति और उपाय ये एकार्थवाची हैं, उस निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण - अखण्डित उपाय को नियुक्ति कहते हैं । आवश्यकों की जो निर्युक्ति है उसे आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं अर्थात् आवश्यक का सम्पूर्णतया उपाय आवश्यक निर्युक्ति है । अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है उसको बतलाने वाले जो पृथक्-पृथक् स्तुति रूप से "जयति भगवान् हेमाम्भोज प्रचार विजृंभिता -" इत्यादि के प्रतिपादक जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र हैं जो कि न्यायरूप हैं, उन्हें आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं । उस आवश्यक निर्युक्ति के छह प्रकार हैं । भावार्थ – यहाँ पर आवश्यक क्रियाओं के प्रतिपादक शास्त्रों को भी आवश्यक निर्युक्ति शब्द से कहा है सो कारण में कार्य का उपचार समझना । १ क स्वरूपेण स्तुति जं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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