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________________ पडावश्यकाधिकारः] [३८६ द्वादशांगानि जिनाख्यातानि जिनः प्रतिपादितानि स्वाध्याय इति कथितो बुधः पंडितैस्तं स्वाध्यायं द्वादशागचतुर्दशपूर्वरूपं यस्मादूपदिशति प्रतिपादयति तेनोपाध्याय इत्युच्यते । तस्योपाध्यायस्य नमस्कारं यः करोति प्रयत्नमतिः स सर्वदुखमोक्ष प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥५११॥ साधूनां निरुक्तितो नमस्कारमाह-- णिव्वाणसाधए जोगे सदा जंजंति साधवो। समा सव्वेसु भूदेसु तह्मा ते सव्वसाधवो ॥५१२॥* यस्मानिर्वाणसाधकान् योगान् मोक्षप्रापकान् मूलगुणादितपोऽनुष्ठानानि सदा सर्वकालं रात्रिदिवं युजन्ति तैरात्मानं योजयन्ति साधवः साधुचरितानि। यस्माच्च समाः समत्वमापन्नाः सर्वभूतेषु तस्मात्कारणात्ते सर्वसाधव इत्युच्यन्ते । तेषां सर्वसाधूनां नमस्कारं भावेन यः करोति प्रयत्नमतिः स सर्वदुःखमोक्षं करोत्यचिरेण कालेनेति ॥५१२॥ पंचनमस्कारमुहसंहरन्नाह प्राचारवत्ति- जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग को पंडितों ने 'स्वाध्याय' नाम से कहा है । उस द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप स्वाध्याय का जो उपदेश देते हैं, अन्य जनों को उसका प्रतिपादन करते हैं इस हेतु से वे 'उपाध्याय' इस नाम से कहे जाते हैं। जो प्रयत्नशील होकर उन उपाध्यायों को नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। अब साधुओं को निरुक्ति अर्थ पूर्वक नमस्कार करते हैं गाथार्थ-साधु निर्वाण के साधक ऐसे योगों में सदा अपने को लगाते हैं, सभी जीवों में समताभावी हैं इसीलिए वे साधु कहलाते हैं ॥५१२॥ प्राचारवृत्ति-जिस कारण से मोक्ष को प्राप्त कराने वाले ऐसे मूलगुण आदि तपों के अनुष्ठान में हमेशा रात-दिन वे अपनी आत्मा को लगाते हैं, जिनका आचरण साधु-सुन्दर है और जिस हेतु से वे सम्पूर्ण जीवों में समता भाव को धारण करने वाले हैं, इसी हेतु से वे सर्व साधु इस नाम से कहे जाते हैं । जो प्रयत्नशील होकर उन सभी साधुओं को नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। पच नमस्कार का उपसंहार करते हुए कहते हैं-- यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है उवमायणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सोसव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।। अर्थात जो स्थिरचित्त भव्य भक्ति से उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही . सर्वदुःखों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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