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________________ ३७८] [मूलाचारे संहननं ज्ञात्वा कुर्यादशनसमिति जिनागमे यथोपदिष्टामिति । अन्यथा यदि कुर्याद्वातपित्तश्लेष्मादिसम्भवः स्यादिति ॥४६०॥ भोजनविभागपरिणाममाह अद्धमसणस्स सव्विजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण। वाऊसंचरणळं चउत्थमवसेसये भिक्खू ॥४६१॥ उदरस्यार्ध राव्यञ्जनेनाशनेन पूरयेत्तृतीयभागं चोदरस्योदकेन पूरयेद्वायोः संचरणार्थं चतुर्थभागमुदरस्यावशेषयेभिक्षुः । चतुर्थभाग मुदरस्य तुच्छ कुर्याद्येनश्यकत्रियाः सुखेन प्रवर्तते, ध्यानाध्ययनादिक च न हीयते, अजीर्णादिकं च न भवेदिति ॥ ४६१।। भोजनयोग्यकालमाह सूरुदयत्थमणादो णालीतिय वज्जिदे असणकाले। तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्ममुक्कस्से ॥४६२।। सूर्योदयास्तमनयोर्नाडीत्रिकजितयोर्मध्येऽशनकालः । तस्मिन्नशनकाले त्रिषु मुहूर्तेषु भोजन देश में जल, वृक्ष, पर्वत आदि कम रहते हैं वह जांगल देश है। जहाँ पानी, वृक्ष और पर्वत की बहुलता है वह अनूप कहलाता है तथा जहाँ पर जल, वृक्ष व पर्वत अधिक या कम नहीं हैं प्रत्युत सम हैं, उसे साधारण कहते हैं । जो साधु आहार आदि की वस्तुरूप द्रव्य को, प्रकृति के अनुरूप क्षेत्र को, ऋतु के अनुरूप काल को, अपने भावों को तथा अपने बल वीर्य को देखकर उसके अनुरूप आहार आदि ग्रहण करता है उसका धर्मध्यान ठीक चलता है, संयम में बाधा नहीं आती है। इसके विपरीत इन बातों की अपेक्षा न रखने से, वात-पित्त आदि दोष कुपित हो जाने से, नाना रोग उत्पन्न हो जाने से क्लेश हो जाता है। भोजन के विभाग का परिमाण बताते हैं गाथार्थ-उदर का आधा भाग व्यंजन अर्थात् भोजन से भरे, तीसरा भाग जल से भरे और वह साधु चौथा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रखे ।।४६१॥ प्राचारवृत्ति-साधु अपने उदर के चार भाग करे। उनमें से आधा भाग व्यंजन (भोजन) से पूर्ण करे, तृतीय भाग जल से पूर्ण करे और उदर का चौथा भाग वायु के संचार के लिए खाली रखे । उदर का चौथा भाग खाली ही रखे कि जिससे छह आवश्यक क्रियाएँ सुख से हो सके, स्वाध्याय ध्यान आदि में भी हानि न होवे तथा अजीर्ण आदि रोग भी न होवें। भोजन के योग्य काल को कहते हैं गाथार्थ-सूर्य के उदय और अस्त काल की तीन-तीन घटिका छोड़कर भोजन के काल में तीन, दो और एक मुहूर्त पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट है।४६२॥ प्राचारवृत्ति-सूर्योदय के तीन घड़ी बाद से लेकर सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक के गय में आहार का काल है। उस आहार के काल में तीन महर्त तक भोजन करना जघन्य आच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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