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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३७६ जघन्या चरणं द्वयोर्मुहूर्तयोरशनं मध्यमाचरणं एकस्मिन् मुहूर्तेऽशनमुत्कृष्टाचरणमिति सिद्धिभक्तौ कृतायां परिमाणमतन्न भिक्षामलभमानस्य पर्यटत इति ॥४॥२॥ भिक्षार्थ प्रविष्टो मुनिः कि कुर्वन्नाचरतीत्याह भिक्खा चरियाए पुण गुत्तीगुणसोलसंजमादोणं। रक्खंतो चरदिमुणी णिग्वेदतिगं च पेच्छंतो॥४६३॥ भिक्षाचर्यायां प्रविष्टो मुनिर्मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति रक्षश्चरति । गुणान् मूलगुणान् रक्षश्चरति। तथा शीलसंयमादींश्च रक्षश्चरति । निर्वेदत्रिकं चापेक्ष्यमाण: शरीरवैराग्यं संगवैराग्यं संसारवैराग्यं चापेक्ष्यमाण इत्यर्थः ।।४६३॥ तथा प्राणा अणवत्थावि य मिच्छत्ताराहणादणासो य। संजमविराहणावि य चरियाए परिहरेदव्वा ।।४६४॥ आणा-आज्ञा वीतरागशासनं रक्षयन् पालयंश्चरतीति सम्बन्धः । एतांश्च परिहरंश्चरति अनवस्था रण है, दो मुहूर्त में भोजन करना मध्यम आचरण है एवं एक मुहूर्त में भोजन करना उत्कृष्ट आचरण है। यह काल का परिमाण सिद्धभक्ति करने के अनन्तर आहार ग्रहण करने का है न कि आहार के लिए भ्रमण करते हुए विधि न मिलने के पहले का भी। अर्थात् यदि साधु आहार हेतु भ्रमण कर रहे हैं उस समय का काल इसमें शामिल नहीं है। आहार के लिए निकले हुए क्या करते हुए भ्रमण करते हैं ? हो सी बताते हैं--- गाथार्थ-भिक्षा के लिए चर्या में निकले हुए मुनि पुन: गुप्ति, गुण, शील और संयम आदि की रक्षा करते हुए और तीन प्रकार के वैराग्य का चिन्तन करते हुए चलते हैं या आचरण करते हैं ।।४६३।। प्राचारवृत्ति--भिक्षा चर्या में प्रविष्ट हुए मुनि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति की रक्षा करते हुए चलते हैं। मूलगुणों की और उत्तरगुणों की रक्षा करते हुए तथा शील, संयम आदि की रक्षा करते हुए विचरण करते हैं। ऐसे मुनि शरीर से वैराग्य, संग से वैराग्य और संसार से वैराग्य का विचार करते हुए विचरण करते हैं। गाथार्थ-आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम की विराधना इनका चर्या में परिहार करना चाहिए ।। ४६४।। प्राचारवृत्ति-आज्ञा अर्थात् वीतराग शासन की रक्षा करते हुए उनकी आज्ञा का ५. यह गाथा फलटन से प्रकाशित मूलाचार में अधिक है एकम्हि दोण्णि तिष्णि य मुहत्तकालो दु उत्तमादीगो । पुरदो य पच्छिमेण य णालीतिगवज्जिदो चारे । अर्थात् सूर्योदय से तीन घटिका के बाद और सूर्यास्त से नीन घटिका के पूर्व बीच का काल आहार का काल है। एक मुहर्त में भोजन करना उत्तम, दो मूहर्त में मध्यम और तीन महर्त में जघन्य माना गया है। यही अर्थ ऊपर की गाथा में आ चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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