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________________ पिलमुनिअधिकारः] [३७७ रहितं सौवीरशुष्कतकादिसमन्वितं विद्वैषणमित्युच्यते। तथा सौवीरशकतकादिभिर्वजितमव्यजनं पाकादवतीर्णरूपं मनागप्यन्यथा न कृतं शुद्धाशनमिति क्रमणो यथानुकमेण जानीहि । एतत्त्रिविधं द्रव्यमशनयोग्यं । असर्वाशनं सर्वरससमन्वितं सर्वव्यञ्जनश्च सहित कदाचिद्योग्यं कादानिदयोग्यमिति । एवमनेन न्यायेनैषणासमितियाख्याता भवति ।।४८६।। तां कथं कुर्यादित्याशंकायामाह दव्वं खेत कालं भावं बलबीरियं च णाऊण । कुज्जा एषणसमिदि जहोवविह्र जिणमदम्मि ।।४६०॥ द्रध्यमाहारादिकं ज्ञात्वा, तथा क्षेत्र जांगलानूगरूक्षस्निग्धादिकं ज्ञात्वा, तथा कालं शीतोष्णवर्षादिकं ज्ञात्वा तथा भावमात्मपरिणामं श्रद्धामुत्माहं ज्ञात्वा, तथा शरीरबलमात्मनो ज्ञात्वा, तथात्मनो वीर्य षण कहलाता है । तथा विकृति---पाँच प्रकार के रस, उनसे रहित आहार निर्विकृति रूप है। अर्थात् जो गुड़, तेल, घी, दही और दूध तथा शाक आदि से रहित है, तथा सौवीर-भात का मांड या कांजी, शुष्क तक्र-मक्खन निकाला हुआ छाछ इनसे सहित आहार विद्वैषण है । अर्थात् रसादि निविकृति आहर तथा मांड, कांजी या छाछ सहित आहार विद्वेषण कहलाता है। तथा कांजी व छाछ आदि से भी रहित आहार अव्यंजन है। जो पाक रो अवतीर्ण हुआ मात्र है, किचित् भी अन्य रूप नहीं किया गया है वह शुद्धाशन है । अर्थात् केवल पकाये हुए भात या रोटी दाल या उबाले हुए शाक आदि जिनमें नमक, मिरच, मसाला आदि कुछ भी नहीं डाला गया है वह भोजन व्यंजन - संस्कार रहित है, वही शुद्धाशन कहलाता है। गाथा में यथाक्रम से इनका वर्णन किया गया है। - यह तीन प्रकार का द्रव्य अर्थात् भोजन आहार में ग्रहण करने योग्य है। तथा सर्वरसों से समन्वित और सर्व व्यंजनों से सहित ऐसा आहार असर्वाशन है वह कदाचित् ग्रहण करने योग्य है, कदाचित् अयोग्य है । इस न्याय से वर्णन करने पर एषणा समिति का व्याख्यान होता है। उस एषणा समिति का पालन कैसे करें ? सो ही बताते हैं गापार्ष-द्रग्य, क्षेत्र, काल भाव तथा बलवीर्य को जानकर जैसे जिनमत में कही गई है ऐसी एषणा समिति का पालन करें ॥४६०।। प्राचारपति-द्रव्य-आहार आदि पदार्थ को जानकर, क्षेत्र-जांगल, अनूप, रूक्ष, स्निग्ध आदि क्षेत्र को जानकर, काल-शीत, उष्ण, वर्षा आदि को जानकर, भाव-आत्मा के परिणाम, अखा, उत्साह को जानकर तथा अपने शरीर के बल को जानकर एवं अपने वीर्यसंहनन को जानकर साधु, जिनागम में जैसा उसका वर्णन किया गया है उसी तरह से. एषणा समिति का पालन करे। यदि द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा न रखकर चाहे जैसा वर्तन करेगा तो शरीर में बात-पित्त-कफादि की उत्पत्ति हो जावेगी। भावार्ष-क्षेत्र के जांगल, अनूप और साधारण ऐसे तीन भेद माने जाते हैं । जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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