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________________ ३७४] [मूलाचारे रुधिरमांसास्थिचर्मप्यानि महादोषाणि सर्वाहारपरित्यागेऽपि प्रायश्चित्तकारणानि द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियशरीराणि बालाश्चाहारत्यागकारणनिमित्तानि । नखेनाहार: परित्यज्यते । किचित्प्रायश्चित्त क्रियते। कणकंडवीजकंदफलमूलानि परिहारयोग्यानि यदि परिहतुं न शक्यन्ते भोजनपरित्यागः क्रियते। तथा स्वशरीरे सिद्धभक्तो कृतायां यदि रुधिरं पूयं च गलति पारिवेशकशरीराद्वा तदाहारस्य त्यागः । तद्दिवसेऽस्य मांसस्य पुनदर्शनेनाष्टप्रकारायां पिंडशुद्धौ न पठितानीति पृथगुच्यन्ते इति ।।४८४।। दोषरहितं भुक्ते यतिरित्युक्ते किं तद्भुक्ते इत्याशंकायामाह पगदा असओ जमा तह्मादो दव्वदोत्ति तं दव्वं । फासुगनिदि सिद्धेवि य अप्पटुकदं असुद्ध तु ॥४८५॥ द्रव्यभावतः प्रासुकं द्रव्यं भुक्ते। द्रव्यगतप्रासुकमाह-प्रगता असवः प्राणिनो यस्मात्तस्माद्रव्यतः शुद्धमिति तद्रव्यं यत्र केन्द्रिया जीवा न सन्ति न विद्यन्ते स आहारस्तद्रव्यतः शुद्धः, द्वीन्द्रियादयः पुनर्यत्र सजीवा निर्जीवा वा सन्ति स आहारो दूरतः परिवर्जनीयो द्रव्यतोऽ शुद्धत्वादिति । प्रासूकमिति अनेन प्रकारेण प्रासुकं सिद्ध निष्पन्नमपि द्रव्यं यद्यात्मार्थं कृतमात्मनिमित्त कृतं चिन्तयति तदा द्रव्यत: शुद्धमध्यशुद्धमेव ।।४८५॥ जीवों के शरीर अर्थात् मृत लट, चिवटी, मक्खी आदि तथा बाल यदि आहार में आ जावें तो आहार छोड़ देना होता है । आहार में नख आ जाने पर आहार छोड़ देना होता है और किचित् प्रायश्चित्त भी ग्रहण करना होता है । कण, कुंड, वीज, कंद, फल और मूल इनके आ जाने पर यदि इन्हें न निकाल सकें तो आहार छोड़ देना चाहिए। तथा सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि मुनि के अपने शरीर से रुधिर या पीव बहने लगता है अथवा आहार देने वाले के शरीर से रुधिर या पीव निकलता है तो उस दिन आहार छोड़ देना होता है । यदि मांस भी दिख जाए तो भी आहार त्याग कर देना चाहिए। ये मल दोष आठ प्रकार की पिंडशुद्धि में नहीं कहे गए हैं, अतः इनका पृथक् कथन किया गया है। यति दोषरहित आहार करते हैं तो वे कैसा आहार करते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-जिस द्रव्य से जीव निकल गए हैं वह द्रव्य प्रासुक है। इस तरह का भोजन प्रासुक बना होने पर भी यदि वह अपने लिए बना है तो अशुद्ध है ।।४८५॥ प्राचारवत्ति-मुनि द्रव्य और भाव से जो प्रासुक वस्तु आहार में लेते हैं। द्रव्यगत प्रासुक को कहते हैं-निकल गये हैं असु अर्थात् प्राणी जिसमें से वह द्रव्य से शुद्ध है अर्थात् जिसमें एकेन्द्रिय जीव नहीं है वह आहार द्रव्य से शुद्ध है । पुनः जिसमें द्वीन्द्रिय आदि जीव जीते हए या निर्जीव हुए भी हैं वह आहार मुनि को दूर से ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह द्रव्य से अशुद्ध है। इसी प्रकार से प्रासुक सिद्ध हुआ भी द्रव्य यदि अपने लिए तैयार किया गया है तो वह द्रव्य से शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध ही है । अर्थात् वह आहार भाव से अशुद्ध है। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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