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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३७५ कथं परार्थकृतं शुद्धमित्याशंकायां दृष्टान्तेनार्थमाह जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छया हि मज्जंति। ण हि मंडूगा एवं परमट्ठकदे जदि विसुद्धो ॥४८६॥ यथा मत्स्यानां प्रकृते मदनोदके यथा मत्स्यानां निमित्त कृते मदनका रणे जले मत्स्या हि स्फुट माद्यन्ति विह्वलीभवन्ति न हि मण्डूका, भेका नैव माद्यन्ति । यस्मिञ्जले मत्स्यास्तस्मिन्नेव मण्डूका अपि तथापि ते न विपद्यन्ते तद्धतोरभावात् । एवं परार्थे कृते भक्षादिके' प्रवर्तमानोऽपि यतिविशुद्धस्तद्गतेन दोषेण न लिप्यते । कुम्बिनोऽधःकर्मादिदोषेण गृह्यन्ते न साधवः । तेन कुटुम्बिनः साधुदानफलेन तं दोषमपास्य स्वर्गगामिनो मोक्षगामिनश्च भवन्ति सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः पुनर्भोगभुवमवाप्नुवति न दोष इति ॥४८६॥ भावतः शुद्धमाह प्राधाकम्मपरिणदो फासुगदम्वेवि बंधनो भणिओ। सुद्धगयेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥४८७॥ प्रासुके द्रव्ये सति यद्यधःकर्मपरिणतो भवति साधुर्यद्यात्मार्थ कृतं मन्यते गौरवेण तदासी बन्धको परके लिए बनाया गया भोजन कैसे शुद्ध है ? ऐसी आशंका होने पर दृष्टांत के द्वारा उसको कहते हैं गाथार्थ-जैसे मत्स्यों के लिए किये मादक जल में मत्स्य ही मद को प्राप्त होते हैं, इसी तरह पर के लिए किये गये (भोजन) में यति विशुद्ध रहते हैं ।। ४८६।। प्राचारवृत्ति-जैसे मछलियों के लिए जल में मादक वस्तु डालने पर उस जल से मछलियाँ ही विह्वल होती हैं, मेंढक नहीं होते। जिस जल में मछलियाँ हैं उसी में मेंढक भी हैं, फिर भी वे विपत्ति को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि उनके लिए उस कारण का अभाव है। इसी तरह पर के लिए बनाये गये भोजन आदि में उसे ग्रहण करते हुए भी यति विशुद्ध हैं उसके दोष से लिप्त नहीं होते हैं अर्थात् (दाता के ) कुटुम्बीजन ही अधःकर्म आदि दोष से दूषित होते हैं, साधु नहीं। बल्कि वे कुटुम्बी ---गृहस्थ जन यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो साधु के दिये दान के फल से उस अधःकर्म-आरम्भजन्य दोष को दूर करके, स्वर्गगामी और मोक्षगामी हो जाते हैं और यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो पुनः भोगभूमि को प्राप्त कर लेते हैं इसलिए उन्हें दोष नहीं होता है। भाव से शुद्ध आहार को कहते हैं गाथार्थ-अधःकर्म से परिणत हुए मुनि प्रासुक द्रव्य के ग्रहण करने में भी बन्धक कहे गये हैं, किन्तु शुद्ध आहार की गवेषणा करने वाले अधःकर्म से युक्त आहार ग्रहण करने में भी शुद्ध हैं ।।४८७॥ प्राचारवृत्ति-प्रासुक द्रव्य के होने पर भी यदि साधु अधःकर्म से परिणत हैं अर्थात् १क भक्ष्यादिके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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