SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिण्डशुद्धि-अधिकार: ] ताक्षमाशक्तियुक्तेन दात्रं ति ॥४८२ ॥ तथा विगतांगार, विगतधूमं षट्कारणसंयुक्तं क्रमविशुद्धमुत्क्रमहीन, यात्रासाधनमात्र प्राणसंधारणार्थं अथवा मोक्षयात्रासाधननिमित्तं चतुर्दशमलवजित भुक्ते साधुरिति सम्बन्धः || ४८३ || अथ कानि चतुर्दशमलानीत्याह--- हरोमजंतु अट्ठी कणकुंडयपूयचम्म रुहिर मंसाणि । atree कंदमूला छिण्णाणि मला चउद्दसा होंति ॥ ४८४ ॥ नखो, हस्तपादाङ्‌गुल्याग्रप्रभवो मनुष्यजातिप्रतिबद्धतिर्यग्जातिप्रतिबद्धो वा रोमवाल: सोपि मनुष्यतिर्यग्जातः । जन्तुर्जीवः प्राणिरहितशरीरं । अस्थि कंकाल कणः यवगोधूमादीनां बहिरवयवः । कुड्यादिशाल्यादीनामभ्यन्तर सूक्ष्मावनवाः । पूयं पक्वरुधिरं व्रणकलेदः चर्म शरीरत्वक् प्रथमधातुः । रुधिरं द्वितीयो धातुः । मांसं रुधिराधार तृतीयो धातुः । वीजानि प्रा (प्र) रोहयोग्यावयवगोधूमादयः । फलानि जम्बाम्राम्बा - डकफलानि | कंदः कंदत्यधः प्रारोहकारणं । मुलं पिप्पलाद्यधः प्ररोह्निमित्तं । छिन्नानि पृथग्भूतानि मलानि चतुर्दश भवन्ति । कानिचिदत्र महामलानि कानिविदल्पानि कानिचिन्महादोषाणि कानिचिदल्पदोषाणि । अथवा मोक्ष की यात्रा के साधन का निमित्त है, चौदह मल दोषों से रहित है ऐसे आहार को प्रति ग्रहण करते हैं । [ ३७३ भावार्थ - १६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० अशन दोष, संयोजन, प्रमाण, अंगार और धूम से मिलकर छयालीस दोष हो जाते हैं । यहाँ पर संयोजन आदि चार को पृथक् करके उपर्युक्त ४२ को एक साथ लिया है। चौदह मलदोष क्या हैं ? गाथार्थ -- नख, रोम, जंतु, हड्डी, कण, कुण्ड, पीव, चर्म, रुधिर, मांस, बीज, फल, कंद और मूल ये पृथक्भूत चौदह मलदोष होते हैं । ४८४ ॥ प्राचारवृत्ति- नख- मनुष्य या तिर्यंचों के हाथ या पैर की अंगुलियों का अग्र भाग, रोम - मनुष्य और तिर्यंचों के बाल, जन्तु - प्राणियों के निर्जीव शरीर, अस्थि - कंकाल अर्थात् हड्डी, कण -- जौ - गेहूँ आदि के बाहर का अवयव, छिलका, कुण्ड - शालि आदि अभ्यन्तर भाग का सूक्ष्म अवयव, पूय – पका हुआ रुधिर अर्थात् घाव का पीव, चर्म - शरीर की त्वचा (यह प्रथम धातु है), रुधिर --- खून (यह द्वितीय धातु है), मांस- रुधिर के लिए आधारभूत (ग्रह तृतीय धातु है), बीज-उगने योग्य अवयव अर्थात् गेहूँ, चने आदि, फल -- जामुन, आम, अंबाडक आदि, कंद - कंदली के नीचे से उगने वाला, अर्थात् जमीन में उत्पन्न होनेवाले अंकुर की उत्पत्ति के कारणभूत अथवा सूरण वगैरह मूल- पिप्पली आदि जड़, ये चौदह मल होते हैं । इनमें कुछ तो महामल हैं और कोई अल्प मल हैं। कोई महादोष हैं और कोई अल्प दोष हैं । रुधिर, मांस, हड्डी, चर्म और पीव ये महादोष हैं। आहार में इनके आ जाने पर सर्वाहार का परित्याग करने पर भी प्रायश्चित लेना होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय १ क यग्गतः । २ क "त्याः प्ररों । ३ कयाधः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy