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________________ ३७२] संयमो मम स्यादिति भक्ते । ध्यानाधं चैव, आहारमन्तरेण न ध्यानं प्रवर्तते यतो भुक्ते यतिरिति । तथापि भुक्ते इत्यत आह ॥४८१॥ णवकोडीपरिसुद्ध असणं बावालयोसपरिहीणं। संजोजणाय होणं पमाणसहियं विहिसुविणं ॥४८२॥ विदिंगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्ध । जत्तासाधणमेत चोद्दसमलवज्जिवं भुजे ॥४८३॥ नवकोटिपरिशुद्ध । कास्ताः कोटयो मनसा कृतकारितानुमतानि तिस्रः कोटयः, तथा वचसा कृत. कारितानुमतानि तिस्रः कोटयः, तथा कायेन कृतकारितानुमतानि तिस्रः कोटय एताभि. कोटिभिः परिशुद्धमशनं, द्विचत्वारिंशदोषपरिहोणं उद्गमोत्पादेषणादोषरहित, संयोजनयारहितं, प्रमाणसहित, विधिना दत्त प्रतिमहोच्चस्थानपादोदकार्चनाप्रणमनमनोवचनकायशुद्धयशन्शुद्धिभिर्द तमुपनीत, श्रद्धाभक्तितुष्टिविज्ञानालुब्ध 'मेरा स्वाध्याय चलता रहे' इस तरह ज्ञान के लिए आहार करते हैं । 'मेरा संयम पलता रहे' इस तरह संयम के लिए आहार करते हैं और आहार के बिना ध्यान नहीं हो सकेगा इसलिए ध्यान के हेतु यति आहार करते हैं । अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए मुनि आहार करते हैं। कैसा आहार ग्रहण करते हैं ? सो ही बताते हैं--- गाथार्थ-नवकोटि से शुद्ध भोजन, जो कि व्यालीस दोषों से रहित है, संयोजना से हीन है, प्रमाण सहित है और विधिपूर्वक दिया जाता है। जो कि अंगार दोष से रहित है, धूम दोष रहित है, छह कारणों से युक्त है और क्रम से विशुद्ध है, जो यात्रा के लिए साधनमात्र है तथा चौदह मल दोषों से रहित है, साधु ऐसा अशन ग्रहण करते हैं ।।४८२-४८३॥ प्राचारवृत्ति—जो आहार नव कोटि से परिशुद्ध है। ये नव कोटि क्या हैं ? मन से कृत, कारित, अनुमोदना का होना ये तीन कोटि हैं; वचन से कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन कोटि हैं तथा काय से कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन कोटि हैं, ऐसे ये नव कोटि हुईं। इन नव कोटि से शुद्ध आहार को मुनि ग्रहण करते हैं। अर्थात् मुनि मन, वचन, काय से आहार न बनाते हैं, न बनवाते हैं और न अनुमोदना करते हैं। सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष और दस एषणा दोष ये ब्यालीस दोष हैं । इनसे रहित, संयोजना दोष से रहित और प्रमाण सहित आहार लेते हैं। तथा विधि से दिया गया हो अर्थात् पड़गाहन करना, उच्च स्थान देना, पाद प्रक्षालन करना, अर्चना करना, प्रणाम करना, मन-वचन-काय की शुद्धि तथा आहार की शुद्धि यह नवधाभक्ति विधि कहलाती है। इस विधि से तथा श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलोभ, क्षमा और शक्ति सा दाता के द्वारा जो दिया गया है ऐसा आहार लेते हैं। जो अंगार दोष रहित, धुम दोष रहित, छह कारणों से संयुक्त, क्रम से विशुद्ध अर्थात् उत्क्रम से हीन, तथा प्राणों के धारण के लिए For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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