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________________ पिउशुद्धि-अधिकारः] [३७१ तपस्यनशनं नाम तपस्तदद्य करोमीति तपो निमित्तमाहारव्युच्छेदः । तथा शरीरपरिहारे संन्यासकाले जरा मम श्रामण्यहानिकरी, रोगेण च दुःसाध्यतमेन जुष्टः, करणविकलत्वं च मम संजातं स्वाध्यायक्षतिश्च दृश्यते, जीवितव्यस्य च ममोपायो नास्तीत्येवं कारणे शरीरपरित्यागस्तन्निमित्तो भक्तादिव्यच्छेदः । । कारणराहारपरित्यागः कार्यः । न पूर्वैः सह विरोधो' विषयविभागदर्शनादिति, क्षुद्वेदनादिषु सत्स्वपि आतंक: स्यात्, यदि प्रचुरजीवहत्या वा दृश्यते ततो भोजनादिपरित्यागं, शरीरपीडारहितस्य तपोविधानमिति न विरोधो विषयभेददर्शनादिति । आहारोऽत्रानुवर्तते तेन सह सम्बन्धो व्युच्छेदस्येति ॥४८०॥ एतदर्थं पुनराहारं न कदाचिदपि कुर्यादिति प्रपंचयन्नाह ण बलाउसाउट्ठ ण सरीर स्सुवचय? तेजठें। णाणट्ठ संजमठ्ठ झाणठं चेव भुजेज्जो ॥४८१॥ न बलार्थ मम बलं युद्धादिक्षमं भूयादित्येवमर्थ न भुक्ते नायुषोर्थ—ममायुर्वृद्धि यात्विति न भुक्ते । न स्वादार्थ, शोभनोऽस्य स्वादो भोजनस्येत्येवमर्थं न भुक्ते । न शरीरस्योपचयार्थ, शरीरं मम पुष्टं मांसवृद्ध वा भवत्विति न भुक्ते। नापि तेजोऽर्थ, शरीरस्य मम दीप्तिः स्याद्दों वेति न भुजीताहारमिति । ययेवमर्थं न भुक्ते किमर्थं तहि भुक्तेऽत आह-ज्ञानार्थ, ज्ञानं स्वाध्यायो मम प्रवर्ततामिति भुक्ते । संयमार्थ, मरण के निमित्त आहार का त्याग करते हैं । अर्थात् इन छह कारणों से आहार का त्याग करना चाहिए। यहाँ पूर्व कारणों के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि विषय विभाग देखा जाता है । क्षुधावेदना आदि के होने पर भी आतंक हो सकता है । अथवा यदि प्रचुर जीव-हत्या दिखती है तो भोजन आदि त्याग कर देते हैं । शरीर-पीड़ा रहित साधु के तपश्चरण होता है इसलिए विरोध नहीं है क्योंकि विषयभेद देखा जाता है। आहार शब्द की अनुवृत्ति होने से यहाँ पर भी गाथा में व्युच्छेद के साथ आहार का व्युच्छेद अर्थात् त्याग करना ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए। इनके लिए पुनः आहार कदाचित् भी न करे, इसी बात को बताते हैं गाथार्थ-न बल के लिए, न आयु के लिए और न स्वाद के लिए, न शरीर की पुष्टि के लिए और न तेज के लिए आहार ग्रहण करे । किन्तु ज्ञान के लिए, संयम के लिए और ध्यान के लिए आहार ग्रहण करे ॥४८१॥ प्राचारवृत्ति--'युद्धादि में समर्थ ऐसा बल मेरे हो जावे' इस हेतु मुनि आहार नहीं करते हैं । 'मेरी आयु बढ़ जावे' इसलिए भी आहार नहीं करते हैं। 'इस भोजन का स्वाद बढ़िया है' इस प्रकार स्वाद के लिए भी भोजन नहीं करते हैं । 'मेरा शरीर पुष्ट हो जावे अथवा मांस की वृद्धि हो जावे' इसलिए भोजन नहीं करते हैं और 'मेरे शरीर में दीप्ति हो या दर्प हो' इसलिए भी आहार नहीं करते हैं। ___ यदि इन बल, आयु, स्वाद, शरीर पुष्टि और दीप्ति के लिए आहार नहीं करते हैं तो किसलिए करते हैं ? १ विरोधो विभागदर्शनादिति आहाररोधो विषयदर्शनादिति । २ क 'रमुपच्चयट्ठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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