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________________ ३७.] [मूलाधार ममाहारमन्तरेण विशेषेणायुर्न तिष्ठतीत्येवं प्राणार्थ भुक्ते । तथा धर्मचिन्तया भुक्ते धर्मो दशप्रकार: उत्तमक्षमादलगा मम वशे न तिष्ठति भोजनमतरेण,क्षमा मार्दवमार्जवं चेत्यादिकंकतुं न शक्नोत्ययं जीवोशनमन्त रणति भुते । नातिमात्र धर्मसयमयोः पुनरैक्यं क्षमादिभेवदर्शनादिति। एभिः षड्भिः कारण राहारं कुर्याद्यतिरिति सम्बन्धः ।।४७६।। अथ यः कारणैस्त्यजत्याहार कानि तानीत्याशंकायामाह प्रादके उवसग्गे तिरक्खणे बंभोरगुत्तीमो। पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छवो ॥४८०॥ आतके आकस्मिकोत्थितव्याधी मारणान्तिकपीडायां सहितायां वाह्यजातीयामाहारव्युच्छेदः परित्यागः । तथोपसर्गे दीक्षाविनाशहेतो देवमानुषतिर्यग्चेतनकृते समुपस्थिते भोजनपरित्यागः । तितिक्षणायां ब्रह्म नर्यगुप्तेः सुष्ठु निर्मलीकरणे सप्तमधातुक्षयायाहारघ्युम्छेदः । तथा प्राणिदयाहेती यवाहारं गृहामि बहुप्राणिनां घातो भवति तस्माद्यद्याहारं न गृहामीति जीवदयानिमित्तमाहारव्युच्छेदः । तथा तपोहेतौ द्वावविध रह सकता है, अतः प्राणों के लिए मुनि आहार करते हैं। भोजन के बिना उत्तम क्षमा आदि रूप दस प्रकार का धर्म मेरे वश में नहीं रह सकेगा। अशन के बिना यह जीव क्षमा, मार्दव भादि धर्म करने में समर्थ नहीं हो सकता है, इसलिए वे आहार करते हैं। धर्म और संयम में एकान्त से ऐक्य नहीं है, क्योंकि क्षमादि भेद देखे जाते हैं। इन छह कारणों से यति आहार करते हैं यह अभिप्राय है। जिन कारणों से आहार छोड़ते हैं वे कौन से हैं ? सो ही कहते हैं गाभार्थ- आतंक होने पर, उपसर्ग के आने पर, ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु, प्राणि वया के लिए, तप के लिए और संन्यास के लिए आहार त्याग होता है ॥४८०॥ प्राचारवृत्ति--आतंक-आकस्मिक कोई व्याधि उत्पन्न हो गयी जो कि मारणान्तिक पीड़ा कारक है, ऐसे प्रसंग में आहार का त्याग कर दिया जाता है। उपसर्ग-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत उपसर्ग के उपस्थित होने पर भोजन का त्याग होता है। ब्रह्मचर्य, गुप्ति की रक्षा के लिए अर्थात् अच्छी तरह ब्रह्मचर्य को निर्मल करने हेतु, सप्तम धातु अर्थात् वीर्य का क्षय करने के लिए आहार का त्याग होता है। 'यदि मैं आहार ग्रहण करता हूँ तो बहुत से प्राणियों का घात होता है इसलिए आहार ग्रहण नहीं करूंगा', इस तरह जीव दया के निमित्त आहार का त्याग करते हैं। 'बारह प्रकार के तपों में अनशन एक तप है उसे मैं करूंगा' ऐसे तप के लिए भी आहार छोड़ देते हैं। तथा 'संन्यास काल में अर्थात् वृद्धावस्था मेरी मुनिअवस्था में हानि करनेवाली है, मैं दुश्साध्य रोग से युक्त हूँ, मेरी इन्द्रियों विकल हो गयी हैं, या मेरे स्वाध्याय की हानि हो रही है, मेरे जीने के लिए अब कोई उपाय नहीं है', इस प्रकार के प्रसंगों में शरीर का परित्याग करना होता है। इसी का नाम संन्यासमरण है। उस संन्यास १ क नात्र धर्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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