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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३६६ षभिः कारणैःप्रयोजनस्तु निरवशेषमशनमाहारं भोज्यखाद्यलेह्यपेयात्मकमभ्यवहरन्नपि भुजानोऽप्याचरति चेष्टयति अनुष्ठानं करोति धर्म चारित्र । तथैव पभिः कारणः प्रयोजनैस्तु निरवशेषं 'जुगुप्सन्नपि परित्यजन्नप्याचरति प्रतिपालयति धर्ममिति संबधः । निष्कारणं यदि भुक्ते भोज्यादिकं तदा दोषः, कारण: पनभं जानोऽपि धर्ममाचरति साधुरिति सम्बन्धः । तथापरैः प्रयोजनैः परित्यजन्नपि भोज्यादिक धर्ममेवाचरति नाशनपरित्यागे दोषः सकारणत्वात्परित्यागस्येति ।।४७८।। कानि तानि कारणानि यै भुक्तेऽशनमित्याशंकायामाह वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्टाए। तध पाणधमचिता कुज्जा एदेहिं प्राहारं ॥४७६॥ वेदना क्षुद्वेदनामुपशमयामीति भक्ते । वयावृत्त्यमात्मनोऽन्येषां च करोमीति वैयावृत्त्यार्थ भुंक्ते । क्रियार्थ षडावश्यकक्रिया मम भोजनमन्तरेण न प्रवर्तते इति ता प्रतिपालयामीति भुक्ते। संयमार्थं त्रयोदशविधं संयम पालयामीति भुक्ते, अथवाहारमन्तरेणेन्द्रियाणि मम विकलानि भवन्ति तथा सति जीवदयां कर्तुं न ' शक्नोमीति प्राणसंयमा इन्द्रियसंयमार्थं च भुक्ते, तथा प्राणचिन्तया भुक्ते, प्राणा दशप्रकारास्तिष्ठन्ति (न) प्राचारवृत्ति--- मुनि छह कारणों से प्रयोजनों-से भोज्य, खाद्य, लेह्य, पेय इन चार प्रकार के आहार को ग्रहण करते हुए भी धर्म अर्थात् चारित्र का अनुष्ठान करते हैं। तथा छह प्रयोजनों से ही आहार का त्याग करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं। यदि मुनि निष्कारण ही आहार ग्रहण करते हैं तो दोष है। प्रयोजनों से भोजन करते हुए भी धर्म का आचरण करते हैं ऐसा अभिप्राय है। उसी प्रकार से अन्य प्रयोजनों से ही भोजन का त्याग करते हुए धर्म का ही पालन करते हैं अतः भोजन के परित्याग में दोष नहीं है, क्योंकि वह त्याग कारण सहित होता है। वे कौन से कारण हैं जिनसे आहार करते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-वेदना शमन हेतु, वैयावृत्ति के लिए, क्रियाओं के लिए, संयम के लिए, तथा प्राणों की चिन्ता और धर्म की चिन्ता के लिए, इन कारणों से आहार करे ॥४७६।। आचारवृति-- 'मैं क्षुधा-वेदना का उपशम करूँ' इसलिए मुनि आहार करते हैं। 'मैं अपनी और अन्य साधओं की वैयावत्ति करूं' इसलि आहार करते हैं। 'मेरी छह आवश्यक क्रियाएँ भोजन के बिना नहीं हो सकती हैं, मैं उन क्रियाओं को करूं', इसलिए आहार करते हैं । 'तेरह प्रकार का संयम मैं पालन करूं' इसलिए भोजन करते हैं । अथवा 'आहार के बिना मेरी इन्द्रियाँ शिथिल या विकल हो जावेंगी तो मैं जीवदया पालन करने में समर्थ नहीं होऊंगा' इस तरह से प्राण संयम और इन्द्रिय संयम के पालन करने हेतु आहार करते हैं। तथा 'मेरे ये दश विध प्राण आहार के बिना नहीं रह सकते हैं', विशेष रूप से आहार के बिना आयु प्राण नहीं १क उज्भन्नपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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